विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 10रास में चंद्रमा का योगदानदृष्टा कुमुद्वन्तम्.........वनं च तत्कोमलगोभिरंजितम शरद ऋतु की पूर्णिमा, सायंकाल का समय और भगवान ने जिन रात्रियों का दान गोपियों को बिहार के लिए किया था, वे सब सोलहो श्रृंगार करके सामने खड़ी थीं; बेला, चमेली खिली हुई थी। भगवान ने देखा- कि गोपियाँ भी विहार के लिए तत्तपर, रात्रियाँ भी उपस्थित और उद्दीपन की सारी सामग्री बी तो भगवान के मन में भी रास का संकल्प उदय हो गया। प्रश्न यह है कि वह भगवान कैसा भगवान है जो किसी समय को देखकर रम जाय, किसी स्थान को देखकर रम जाय, किसी वस्तु को देखकर रम जाय, किसी व्यक्ति को देखकर रम जाए? यह तो कभी हो सकता है जब ज्यादा आनन्द उन वस्तु, काल या व्यक्तियों में हो। परंतु ऐसा यदि हो तो भगवान की भगवत्ता ही चली जायेगी। काहे के भगवान जिसके दिल में सुख ही नहीं है, जो दूसरे सुख उधार लेना चाहते हैं? इससे तो अच्छा दरिद्र। जरूरतमन्द को भगवान नहीं कहते। तब भगवान रमण का संकल्प क्यों करते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में ही भक्ति का रहस्य है। जब भगवान देखते हैं कि यह पुण्यात्मा जीव संसार की वासना छोड़कर मेरा नाम लेना चाहता है तो वे अपने नाम को उसकी जीभ पर रख देते हैं, स्वयं नाम बन करके उसकी जीभ पर आ जाते हैं; और उसकी जीभ पर जब नाम नाचता है तो उसको सुन-सुनकर खुश होते हैं। अपनी ही नाम की ध्वनि को सुनकर भगवान प्रसन्न होते हैं, क्योंकि जो रूप में है सोई नाम में है। यह भक्ति की बड़ी अद्भुत लीला है। मैं कई बार यह बात आपको सुना चुका हूँ, कि योगी लोग मानते हैं कि सत्त्वगुण की वृत्ति जब इष्टाकार होती है तब उसको भक्ति कहते हैं, परंतु सत्त्वगुण की वृत्ति में इतना आनन्द नहीं है कि भगवान उस पर मोहित हो जाएं वह भगवान को वश में कर ले। योगी लोग कहतेहैं, कि आनन्दाकार वृत्ति, सम्प्रज्ञात समाधि है। परंतु इस वृत्ति का तो उनको निरोध करना पड़ता है। वेदान्ती लोग कहते हैं कि अज्ञान का कार्य जो अन्तःकरण है उस अंतःकरण की एक श्रद्धा से बनी हुई वृत्ति भक्ति है। परंतु क्या मायिक वृत्ति भगवान को वश में कर लेगी और क्या मायिक वृत्ति पर भगवान मुग्ध हो जायेंगे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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