विषय सूचीरासपञ्चाध्यायी -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीप्रवचन 1उपक्रममुग्धं स्निग्धं मधुरमुरलीमाधुरीधीरनादैः । भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः । अब श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध में रास-पञ्चाध्यायी का प्रसंग आपको सुनाते हैं। ऐसा मानते हैं कि ये भागवत के बारह स्कन्ध भगवान् के बारह अंग हैं। उनमें- से दशम-स्कन्ध भगवान् का हृदय है और हृदय में जैसे संचारी प्राण होते हैं वैसे ही पाँच प्राण के समान रास-पञ्चाध्यायी के ये पाँच अध्याय हैं। जिस समय हम रास-पञ्चाध्यायी के साथ अपने मन, अपने कान, अपने शरीर का संबंध जोड़ते हैं- माने काने से रास-पञ्चाध्यायी सुनते हैं, शरीर को रास-पञ्चाध्यायी मं बैठाते हैं, मनसे रास-पञ्चाध्यायी का चिन्तन करते हैं- उस समय हमारा संबंध भगवान् के प्राणों के साथ हो जाता है; उनके श्वास के साथ हमारा संबंध हो जाता है कि जिसके मन में यह लालसा होवे कि हमारा संबंध भगवान् के साथ बने, उसके लिए उसमें दो पहलू हैं- एक तो संसार में अरुचि होवे और दूसरे भगवान् में रुचि होवे जिसकी रुचि धन में, भोग में, कुटुम्ब-संबंध में ज्यादा है और दुनिया का काम करने में ज्यादा है, उसकी भगवान् में ज्यादा रुचि नहीं होती। भक्तों का तो यहाँ तक कहना है कि जिसकी रुचि मोक्ष में होती है, उसकी रुचि भी भगवत्-लीला में, कथा में ज्यादा नहीं होती है। यह जो भगवत्-लीला-कथा है, यह दो तरह से मनुष्य का कल्याण करती है; एक तो जो संसार में फँसकर दुःख भोग रहे हैं उनको उधर से छुड़ाती है; और दूसरे भगवद् रस का दान करती है। कल या परसों वृन्दावन से एक चिट्ठी आयी थी; वहाँ के एक विद्वान की चिट्ठी थी। उसमें एक शब्द लिखा था- ‘श्रीभगवत् भागवत-रतिपरायण’ माने भगवद्रतिपरायण, भागवत्- रतिपरायण; अर्थात् जिसका भगवान् में और भगवान् के भक्तों में प्रेम है और उसी प्रेम में लवलीन है, परायण भी है। देखो, संसार में जितने भी मनुष्य होते हैं, मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी भी, देवता-दानव भी, प्राणिमात्र, सबको रस चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 10.29.1
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