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उदय हुए जब श्रीवृन्दावन
- किया समर्पण परम मुदित मन, सहज अखिल जीवन आचार।
- बनी सर्वथा एकमात्र वे प्रियतम सुख-मूरति साकार।।
- सहज अमित सौन्दर्य, परम माधुर्य, अतुल ऐश्वर्यनिधान।
- पूर्णकाम निष्काम सहज जो आत्माराम स्वयं भगवान।।
- गोपी के उस त्यागशुद्ध रस मधुर दिव्य का करने पान।
- लालायित हो उठे परम आतुर हो रसदाता रसखान।।
- प्रेमीजन-मन-रञ्जन प्रभु ने किया उन्हें सादर स्वीकार।
- आत्माराममयी रस-क्रीडा विविध विचित्र रची सुखसार।।
- किया-कराया दिव्य परम रस-दान-पान अति कर सम्मान।
- प्रति गोपी को दिया परम सुख धर अनन्त वपु दिव्य महान।।
- प्रेमभिक्षु बन स्वयं किया गोपी-प्रदत्त सुख-अंगीकार।
- बोले-‘प्रेमरमणियो! यह निरवद्य तुम्हारा रस-व्यवहार।।
- घर को तोड़ अटूट बेड़ियाँ तुमने मुझे भजा अविकार।
- सदा बढ़ाता स्क्खेगा यह मुझ पर सुखमय ऋण का भार।।
- नहीं चुका सकता मैं बदला इसका देव-आयु-चिरकाल।
- तुम्हीं स्वसाधुता से कर सकतीं मुझे कभी ऋणमुक्त निहाल’।।
- राधा आदि गोप-रमणी सब सुनकर प्रियतम की यह बात।
- हुई चकित वे लगीं देखने अपलक दृग प्रिय-मुख-जलजात।।
- देते दिव्य अनन्त परम सुख, निज को ऋणी मानते आप।
- कैसा शील-स्वभाव विलक्षण, कैसा हृदय उदार अमाप।।[1]
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