रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 241

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला (पदों में)

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उदय हुए जब श्रीवृन्दावन

किया समर्पण परम मुदित मन, सहज अखिल जीवन आचार।
बनी सर्वथा एकमात्र वे प्रियतम सुख-मूरति साकार।।
सहज अमित सौन्दर्य, परम माधुर्य, अतुल ऐश्वर्यनिधान।
पूर्णकाम निष्काम सहज जो आत्माराम स्वयं भगवान।।
गोपी के उस त्यागशुद्ध रस मधुर दिव्य का करने पान।
लालायित हो उठे परम आतुर हो रसदाता रसखान।।
प्रेमीजन-मन-रञ्जन प्रभु ने किया उन्हें सादर स्वीकार।
आत्माराममयी रस-क्रीडा विविध विचित्र रची सुखसार।।
किया-कराया दिव्य परम रस-दान-पान अति कर सम्मान।
प्रति गोपी को दिया परम सुख धर अनन्त वपु दिव्य महान।।
प्रेमभिक्षु बन स्वयं किया गोपी-प्रदत्त सुख-अंगीकार।
बोले-‘प्रेमरमणियो! यह निरवद्य तुम्हारा रस-व्यवहार।।
घर को तोड़ अटूट बेड़ियाँ तुमने मुझे भजा अविकार।
सदा बढ़ाता स्क्खेगा यह मुझ पर सुखमय ऋण का भार।।
नहीं चुका सकता मैं बदला इसका देव-आयु-चिरकाल।
तुम्हीं स्वसाधुता से कर सकतीं मुझे कभी ऋणमुक्त निहाल’।।
राधा आदि गोप-रमणी सब सुनकर प्रियतम की यह बात।
हुई चकित वे लगीं देखने अपलक दृग प्रिय-मुख-जलजात।।
देते दिव्य अनन्त परम सुख, निज को ऋणी मानते आप।
कैसा शील-स्वभाव विलक्षण, कैसा हृदय उदार अमाप।।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद रत्नाकर, पद सं. 266

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