रास पंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 147

श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

रासलीला-रहस्य

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भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः।।[1]

श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में 29 से 33 अध्याय तक भगवान की रासलीला का प्रसंग है। इसी को रासपन्चाध्यायी कहते हैं। इस रासपञ्चाध्यायी में श्रीमद्भागवत वर्णित तत्त्वों के सारभूत परम तत्त्व का परमोज्जवल प्रकाश है। यह वस्तुतः श्रीमद्भागवत के पञ्चप्राण-स्वरूप है। भगवान की दिव्य लीला का भाव न समझकर केवल बाह्यदृष्टि से देखने पर यह सारी कथा श्रृंगार-रसपूर्ण दिखायी दे सकती है। और इससे मनुष्य भ्रमग्रस्त हो सकता है। इसी से सम्भवतः श्रीशुकदेवजी ने उपर्युक्त प्रथम श्लोक में प्रथम शब्द ‘भगवान’ दिया है, जिससे पढ़ने वाला व्यक्ति इसे भगवान की लीला समझकर ही पढ़े। वस्तुतः यह लौकिक काम-प्रसंग कदापि नहीं है। इसके श्रोता हैं - विवेक-वैराग्य सम्पन्न, मुमुक्षु, धर्मज्ञानपूर्ण मरण की प्रतीक्षा करने वाले महाराज परीक्षित और वक्ता हैं- ब्रह्मविद्वरिष्ठ परम योगी जीवन्मुक्त सर्वऋषिमुनिमान्य श्रीशुकदेवजी। ऐसे वक्ता-श्रेाता लौकिक श्रृंगार की बातें कहें सुने, यह सोचना ही भूल है।

वस्तुतः इन पाँच अध्यायों में भगवान श्रीकृष्ण की परम दिव्य अन्तरंग लीला का, निजस्वरूपभूता महाभावरूपा ह्लादिनीशक्ति श्रीराधाजी तथा उन्हीं की कायव्यूहरूपा दिव्य कृष्ण प्रेममयी गोपांगनाओं के साथ होने वाली भगवान की रसमयी लीला का वर्णन है। ‘रास’ शब्द का मूल ‘रस’ है और ‘रस’ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही हैं- ‘रसो वै सत।’ जिस दिव्य क्रीडा में एक ही रस अनेक रसों के रूप में होकर अनन्त-अनन्त रस का समास्वादन करे; एक ही रस-समूह के रूप में प्रकट होकर स्वयं ही आस्वाद, आस्वादक, लीला-धाम और विभिन्न आलम्बन एवं उद्दीपन के रूप में क्रीडा करे- उसका नाम ‘रास’ है। अतएव यह रासलीला भी लीलामय भगवान का ही स्वरूप है। भगवान की यह दिव्य लीला, भगवान के दिव्य धाम में दिव्य रूप से निरन्तर हुआ करती है।

भगवान की विशेष कृपा से प्रेमी साधकों के हितार्थ कभी-कभी यह अपने दिव्य धाम के साथ ही भूमण्डल पर भी अवतीर्ण हुआ करती है, जिसको देख-सुन एवं गाकर तथा स्मरण-चिन्तन करके अधिकारी पुरुष रसस्वरूप भगवान की इस पर रसमयी लीला का आनन्द ले सकें और स्वयं भी भगवान की लीला में सम्मिलित होकर अपने को कृतकृत्य कर सकें। इस पञ्चाध्यायाी में वंशीध्वनि, गोपियों के अभिसार, श्रीकृष्ण के साथ उनकी बातचीत, दिव्य रमण, श्रीराधाजी के साथ अन्तर्धान, पुनः प्राकट्य गोपियों के द्वारा दिये हुए वसनासन पर विराजना, गोपियों के कूट प्रश्न का उत्तर, रासनृत्य, क्रीडा, जलकेलि और वनविहार का वर्णन है-जो मानवी भाषा में होने पर भी वस्तुतः परम दिव्य है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भाग. 10।29।1

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