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श्रीरासपंचाध्यायी -हनुमान प्रसाद पोद्दार
रासलीला-चिन्तन
रास का अर्थ है लीलामय भगवान की लीला और वह लीला है भगवान का स्वरूप। रास भगवान का स्वरूप ही है। इसके सिवाय और कुछ नहीं। भगवान की जो दिव्य लीला है रास की, यह नित्य चलती रहती है और चलती ही रहेगी। इसका कोई ओर-छोर नहीं है। कब से शुरू हुई और कब तक चलती रहेगी यह कोई बता नहीं सकता है। कभी-कभी कुछ बड़े ऊँचे प्रेमी महानुभावों के प्रेमाकर्षण से हमारी इस भूमि में भी रासलीला अवतरण होता है। वह अवतरण भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य के समय हुआ। उसी का वर्णन श्रीमद्भागवत में ‘रास-पंचाध्यायी’ के नाम से है। पाँच अध्यायों में उसका वर्णन है। इसमें सबसे पहले वंशीध्वनि है। वंशीध्वनि को सुनकर गोपिकाओं का अभिसार है। श्रीकृष्ण से उनका वार्तालाप है। दिव्य रमण है। श्रीराधाजी के साथ श्रीकृष्ण का अन्तर्धान है। पुनः प्राकट्य है। फिर गोपियों के द्वारा दिये हुये वसनासन पर भगवान का विराजना है। गोपियों के कुछ कूट प्रश्नों-गूढ़ प्रश्नों का-प्रेम प्रश्नों का उत्तर है। फिर रास नृत्य, क्रीड़ा, जलकेलि और वन-विहार है। अन्त में परीक्षित के सन्देहान्वित होने पर बन्द कर दिया जाता है रास का वर्णन। यह बात सबसे पहले समझ लेनी चाहिये, याद रखने की बात है- इसलिये इस रास-पंचाध्यायी में सबसे पहला शब्द आता है। ‘भगवान।’ अब ये बाबा (श्रीराधाबाबा) तो बोलते नहीं हैं नहीं तो यह बताते कि ‘शरदोत्फुल्ल-मल्लिकाः’ का अर्थ क्या होता है? हम तो जानते नहीं हैं। भला, शरद ऋतु में मल्लिका कैसी? शरद ऋतु में मल्लिका कहाँ से फूली? और फिर उसके विचित्र भाव हैं, विचित्र अर्थ हैं। यह अनुभव की चीज है। इतनी बात अवश्य जान लेनी चाहिये कि यह जो कुछ है यह भगवान में है, भगवान का है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तैत्ति० उपनिषद 2।7
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