रामदास चमार
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पूरा नाम | रामदास चमार |
पति/पत्नी | मूली |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | गोदावरी के पवित्र किनारे, कनकावती नगरी, दक्षिण भारत (भारत के दक्षिणी भाग को दक्षिण भारत कहते हैं।) |
प्रसिद्धि | भक्त |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | रामदास शुद्ध हो या अशुद्ध, पर सात्त्विक श्रद्धा से विश्वासपूर्वक भगवान का नाम लेता था। रामदास चमार ने कीर्तन में सुना था- "हरि मैं जैसो तैसो तेरौ।" यह ध्वनि उनके हृदय में बस गयी थी। इसे बार-बार गाते हुए वे प्रेम-विह्वल हो जाया करते थे। अपने को भगवान का दास समझकर वे सदा आनन्दमग्न रहते थे। |
रामदास दक्षिण भारत की पवित्र नगरी कनकावती में रहने वाले भगवद्भक्त थे। ये घर में ही कीर्तन आदि किया करते थे। रामदास जाति से चमार थे। जूता बनाते-बनाते भी वे भगवन्नाम लिया करते थे। कहीं कथा-कीर्तन का पास-पड़ौस में समाचार मिलता तो वहाँ गये बिना नहीं रहते थे। उन्होंने कीर्तन में सुना था- "हरि मैं जैसो तैसो तेरौ।" यह ध्वनि उनके हृदय में बस गयी थी।
शुचि: सद्भक्तिदीप्ताग्निदग्धदुर्जातिकल्मष:।
श्वपाकोऽपि बुधै: श्लाघ्यो न वेदज्ञोऽपि नास्तिक:।।
विषय सूची
परिचय
दक्षिण भारत में गोदावरी के पवित्र किनारे पर कनकावती नगरी थी। वहाँ रामदास नाम के एक भगवद्भक्त रहते थे। वे जाति के चमार थे। घर में मूली नाम की पतिव्रता पत्नी थी और एक सुशील बालक था। स्त्री-पुरुष मिलकर जूते बनाते थे। रामदास उन्हें बाजार में बेच आते। इस प्रकार अपनी मजदूरी के पवित्र धन से वे जीवन-निर्वाह करते थे। तीन प्राणियों का पेट भरने पर जो पैसे बचते, वे अतिथि-अभ्यागतों की सेवा में लग जाते या दीन-दु:खियों को बाँट दिये जाते। संग्रह करना इन भक्त दम्पत्ति ने सीखा ही नहीं था।
कीर्तन-भजन
रामदास घर में कीर्तन किया करते थे। जूता बनाते-बनाते भी वे भगवन्नाम लिया करते थे। कहीं कथा-कीर्तन का पास-पड़ौस में समाचार मिलता तो वहाँ गये बिना नहीं रहते थे। उन्होंने कीर्तन में सुना था- "हरि मैं जैसो तैसो तेरौ।" यह ध्वनि उनके हृदय में बस गयी थी। इसे बार-बार गाते हुए वे प्रेम-विह्वल हो जाया करते थे। अपने को भगवान का दास समझकर वे सदा आनन्दमग्न रहते थे।[1]
शालग्राम की प्राप्ति
एक बार एक चोर को चोरी के माल के साथ शालग्राम जी की एक सुन्दर मूर्ति मिली। उसे उस मूर्ति से कोई काम तो था नहीं। उसने सोचा- "मेरे जूते टूट गये हैं, इस पत्थर के बदले एक जोड़ी जूते मिल जायँ तो ठीक रहे।" वह रामदास के घर आया। पत्थर रामदास को देकर कहने लगा- "देखो, तुम्हारे औजार घिसने-योग्य कितना सुन्दर पत्थर लाया हूँ। मुझे इसके बदले एक जोड़ी जूते दे दो।" रामदास उस समय अपनी धुन में थे। उन्हें ब्रह्मज्ञान पूरा नहीं था। ग्राहक आया देख अभ्यासवश एक जोड़ी जूता उठाकर उसके सामने रख दिया। चोर जूता पहनकर चला गया। मूल्य माँगने की याद ही रामदास को नहीं आयी। इस प्रकार शालग्राम जी अपने भक्त के घर पहुँच गये। रामदास अब उन पर औजार घिसने लगे।
ब्राह्मण द्वारा शालग्राम प्रतिमा की मांग
एक दिन उधर से एक ब्राह्मण देवता निकले। उन्होंने देखा कि यह चमार दोनों पैरों के बीच शालग्राम जी की सुन्दर मूर्ति को दबाकर उस पर औजार घिर रहा है। ब्राह्मण को दु:ख हुआ यह देखकर। वे आकर कहने लगे- "भाई ! मैं तुमसे एक वस्तु माँगने आया हूँ। ब्राह्मण की इच्छा पूरी करने से तुम्हें पुण्य होगा। तुम्हारा यह पत्थर मुझे बहुत सुन्दर लगता है। तुम इसको मुझे दे दो। इसे न पाने से मुझे बड़ा दु:ख होगा। चाहो तो इसके बदले दस-पाँच रुपये मैं तुम्हें दे सकता हूँ।"
रामदास ने कहा- "पण्डित जी ! यह पत्थर है तो मेरे बड़े काम का है। ऐसा चिकना पत्थर मुझे आज तक नहीं मिला है; पर आप इसको न पाने से दु:खी होंगे, अत: आप ही ले जाइये। मुझे इसका मूल्य नहीं चाहिये। आपकी कृपा से परिश्रम करके मेरा और मेरे स्त्री-पुत्र का पेट भरे, इतने पैसे मैं कमा लेता हूँ। प्रभु ने मुझे जो दिया है, मेरे लिये उतना पर्याप्त है।" पण्डित जी मूर्ति पाकर बड़े प्रसन्न हुए। घर आकर उन्होंने स्नान किया। पंचामृत से शालग्राम जी को स्नान कराया। वेदमंत्रों का पाठ करते हुए षोडशोपचार से पूजन किया भगवान का। इसी प्रकार वे नित्य पूजा करने लगे। वे विद्वान थे, विधिपूर्वक पूजा भी करते थे; किंतु उनके हृदय में लोभ, ईर्ष्या, अभिमान, भोगवासना आदि दुर्गुण भरे थे। वे भगवान से नाना प्रकार की याचना किया करते थे।
भगवान की इच्छा
रामदास अशिक्षित था, पर उसका हृदय पवित्र था। उसमें न भोगवासना थी, न लोभ था। वह रूखी-सूखी खाकर संतुष्ट था। शुद्ध हो या अशुद्ध, पर सात्त्विक श्रद्धा से विश्वासपूर्वक वह भगवान का नाम लेता था। भगवान शालग्राम अपनी इच्छा से ही उसके घर गये थे। जब वह भजन गाता हुआ भगवान की मूर्ति पर औजार घिसने के लिये जल छोड़ता, तब प्रभु को लगता कि कोई भक्त पुरुष-सूक्त से मुझे स्नान करा रहा है। जब वह दोनों पैरों में दबाकर उस मूर्ति पर रखकर चमड़ा काटता, तब भावमय सर्वेश्वर को लगता कि उनके अंगों पर चन्दन-कस्तूरी का लेप किया जा रहा है। रामदास नहीं जानता था कि जिसे वह साधारण पत्थर मानता है, वे शालग्राम जी हैं, किंतु वह अपने को सब प्रकार से भगवान का दास मानता था। इसी से उसकी सब क्रियाओं को सर्वात्मा भगवान अपनी पूजा मानकर स्वीकार करते थे।
ब्राह्मण का स्वप्न
इधर ये पण्डित जी बड़ी विधि से पूजा करते थे, पर वे भगवान के सेवक नहीं थे। वे धन-सम्पत्ति के दास थे। वे धन-सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये भगवान को साधन बनाना चाहते थे। भगवान को यह कैसे रुचता। वे तो नि:स्वार्थ भक्ति के वश हैं। भगवान ने ब्राह्मण को स्वप्न दिया- "पण्डित जी ! तुम्हारी यह आडम्बरपूर्ण पूजा मुझे तनिक भी नहीं रुचती। मैं तो रामदास चमार के निष्कपट प्रेम से ही प्रसन्न हूँ। तुमने मेरी पूजा की है। मेरी पूजा कभी व्यर्थ नहीं जाती। अत: तुम्हें धन और यश मिलेगा। पर मुझे तुम उस चमार के घर प्रात: काल ही पहुँचा दो।" भगवान की आज्ञा पाकर ब्राह्मण डर गया। दूसरे दिन सबेरे ही स्नानादि करके शालग्राम जी को लेकर वह रामदास के घर पहुँचा। उसने कहा- "रामदास ! तुम धन्य हो। तुम्हारे माता-पिता धन्य हैं। तुम बड़े पुण्यात्मा हो। भगवान को तुमने वश में कर लिया है। ये भगवान शालग्राम हैं। अब तुम इनकी पूजा करना। मैं तो पापी हूँ, इसलिये मेरी पूजा भगवान को पसंद नहीं आयी। भाई ! तुम्हारा जीवन पवित्र हो गया। तुम तो भवसागर से पार हो चुके।"
नित्य पूजा-पाठ
रामदास ने ब्राह्मण के चरणों में प्रणाम किया। उनका हृदय भगवान की कृपा का अनुभव करके आनन्द में भर गया। वे सोचने लगे- "मैं दीन, अज्ञानी, नीच जाति का पापी प्राणी हूँ। न मुझमें शौच है, न सदाचार। रात-दिन चमड़ा छीलना मेरा काम है। मुझ-जैसे अधम पर भी प्रभु ने इतनी कृपा की। प्रभो ! तुम सचमुच ही पतितपावन हो।"
भगवान को एक छोटे सिंहासन पर विराजमान कर दिया उन्होंने। अब वे नित्य पूजा करने लगे। धंधा-रोजगार प्रेम की बाढ़ में बह गया। वे दिनभर, रातभर कीर्तन करते। कभी हँसते, कभी रोते, कभी गान करते, कभी नाचने लगते, कभी गुमसुम बैठे रहते। भगवान के दर्शन की इच्छा से कातर कण्ठ से पुकार करते- "दयाधाम ! जब एक ब्राह्मण के घर को छोड़कर आप इस नीच के यहाँ आये, तब मेरे नेत्रों को अपनी अदभुत रूपमाधुरी दिखाकर कृतार्थ करो, नाथ ! मेरे प्राण तुम्हारे बिना तड़प रहे हैं।"
भगवान का ब्राह्मण रूप में आगमन
रामदास की व्यथित पुकार सुनकर भगवान एक ब्राह्मण का रूप धारणकर उनके यहाँ पधारे। रामदास उनके चरणों पर गिर गये और गिड़-गिड़ाकर प्रार्थना करने लगे कि- "भगवान का दर्शन हो, ऐसा उपाय बताइये।" भगवान ने कहा- "तुम इस दुराशा को छोड़ दो। बड़े-बड़े योगी, मुनि जन्म-जन्म तप, ध्यान आदि करके भी कदाचित ही भगवान का दर्शन पाते हैं।" रामदास का विश्वास डिगने वाला नहीं था। वे बोले- "प्रभो ! आप ठीक कहते हैं। मैं नीच हूँ, पापी हूँ। मेरे पाप एवं नीचता की ओर देखकर तो भगवान मुझे दर्शन कदापि नहीं दे सकते; परंतु मेरे वे स्वामी दीनबन्धु हैं, दया के सागर हैं। अवश्य वे मुझे दर्शन देंगे। अवश्य वे इस अधम को अपनायेंगे।"
- भगवान का चतुर्भुज स्वरूप में दर्शन
अब भगवान से नहीं रहा गया। भक्त की आतुरता एवं विश्वास देखकर वे अपने चतुर्भुज स्वरूप से प्रकट हो गये। प्रभु ने कहा- "रामदास ! यह ठीक है कि जाति नहीं बदल सकती; किंतु मेरी भक्ति से भक्त का पद अवश्य बदल जाता है। मेरा भक्त ब्राह्मणों का, देवताओं का भी आदरणीय हो जाता है। तुम मेरे दिव्य रूप के दर्शन करो।" रामदास भगवान का दर्शन करके कृतार्थ हो गया।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 675
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