रानी रत्नावती

रानी रत्नावती
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पूरा नाम रानी रत्नावती
पति/पत्नी राजा माधो सिंह
संतान प्रेम सिंह
कर्म भूमि आँबेरगढ़, जयपुर, राजस्थान
प्रसिद्धि भक्त
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी रानी रत्नावती की दासी उनकी गुरु थीं। रानी गुरु बुद्धि से उसका आदर-सत्‍कार करती थीं। विलास भवन भगवान का लीला भवन बन गया। दिन-रात हरि चर्चा और उनकी अनूप रूप माधुरी का बखान होने लगा। सत्‍संग का प्रभाव होता ही है, फिर सच्‍चे भगवत्‍प्रेमियों के संग का तो कहना ही क्‍या। रानी का मन-मधुकर श्‍यामसुन्‍दर ब्रज नन्‍दन के मुखकमल के मकरन्‍द का पान करने के लिये छटपटा उठा था।

रानी रत्नावती भगवान की बड़ी भक्त थीं। उनका मन सदगुण और सद्विचारों से सुसज्जित था। पति-चरणों में उनका बड़ा प्रेम था। रत्नावती का स्वभाव बड़ा मधुर था। दासियों के साथ भी मधुर व्यवहार करती थी। वह ठीक से समझती थी, मानती थी कि हम जिससे व्यवहार करते हैं वह कोई मशीन नहीं है, मनुष्य है। उसे भी सांत्वना चाहिए, सहानुभूति चाहिए, प्यार चाहिए। अपने मधुर व्यवहार से, मधुर वाणी से, बढ़िया आचरण से सारे महल में आदरणीय स्थान प्राप्त कर चुकी थी। दासियाँ भी उसके प्रति बड़ा आदर-भाव रखती थीं।

परिचय

आँबेर के प्रसिद्ध महाराजा मानसिंह जी के छोटे भाई का नाम राजा माधोसिंह था। इनकी पत्‍नी का नाम था रत्नावती। रत्नावती का वदन जैसा सुन्‍दर था, वैसा ही उनका मन भी सदगुण और सद्विचारों से सुसज्जित था। पति-चरणों में उनका बड़ा प्रेम था। स्‍वभाव इतना मधुर और पवित्र था कि जो कोई उनसे बात करता, वही उनके प्रति श्रद्धा करने लगता। महल की दासियाँ तो उनके सदव्‍यवहार से मुग्‍ध होकर उन्‍हें साक्षात जननी समझतीं।[1]

भक्तिमती दासी

रत्नावती जी के महल में एक दासी बड़ी ही भक्तिमती थी। भगवान अपने प्रेमियों के सामने लीला-प्रकाश करने में संकोच नहीं करते। वह भाग्‍यवती पुण्‍यशीला दासी भी ऐसी ही एक पवित्र प्रेमिका थी। आखिल रसामृत सिन्‍धु भगवान उसके सामने भाँति-भाँति की लीला करके उसे आनन्‍द-समुद्र में डुबाये रखते थे। रानी का हृदय उसकी ओर खिंचा। वे बार-बार उसकी इस लोकोत्तर अवस्‍था को देखने की चेष्‍टा करतीं, देखते-देखते रानी के मन में भी प्रेम उत्‍पन्‍न होने लगा। हमारे शरीर के अंदर हृदय में जिस प्रकार के विचारों के परमाणु भरे रहते हैं, उसी प्रकार के परमाणु स्‍वाभाविक ही हमारे रोम-रोम से सदा बाहर निकलते रहते हैं। पापी विचार वाले मनुष्‍यों के शरीर से पाप के परमाणु, पुण्‍यात्‍मा के शरीर से पुण्‍य के, ज्ञानियों के शरीर से ज्ञान के और प्रेमी भक्तों के शरीर से प्रेम के। ये परमाणु अपनी शक्ति के तारतम्‍य के अनुसार अनुकूल अथवा प्रतिकूल वायुमण्‍डल के अनुरूप बाहर फैलते हैं और उस वातावरण में जो कुछ भी होता है, सब पर अपना असर डालते हैं। यह नियम की बात है। और जिनके अंदर जो भाव-परमाणु अधिक मात्रा में और अधिक घने होते हैं, उनके अंदर से वे अधिक निकलते हैं और अधिक प्रभावशाली होते हैं। उस प्रेममयी दासी का हृदय पवित्र प्रेम से भरा था। भरा ही नहीं था, उसमें प्रेम की बाढ़ आ गयी थी। प्रेम उसमें समाता नहीं था। बरबस बाहर निकला जाता था। उस प्रेम ने रानी पर अपना प्रभाव जमाया। एक दिन दासी के मुँह से बड़ी ही व्‍याकुलता से भरी ‘हे नवलकिशोर ! हे नन्‍दनन्‍दन ! हे व्रजचन्‍द्र !’ की पुकार सुनकर रानी भी व्‍याकुल हो गयीं। उन्‍हें इस दुर्लभ दशा को पाकर बड़ा ही आनन्‍द मिला।

अब तो रानी उस दासी के पीछे पड़ गयीं और उससे बार-बार पूछने लगीं कि ‘बता, तुझे यह प्रेम कैसे प्राप्‍त हुआ? भगवान के नाम में इतना माधुर्य तूने कैसे भर दिया? अहा, कितना जादू है उन नामों में ! मैं तेरे मुँह से जब ‘हा नन्‍दनन्‍दन !’ ‘हा व्रजचन्‍द्र !’ सुनती हूँ, तब देह की सुधि भूल जाती हूँ, मेरा हृदय बरबस उन मधुर नामों की ओर खिंच जाता है और आँखों से आँसू निकल पड़ते हैं। बता, बता, मुझको यह माधुरी निरन्‍तर कैसे मिलेगी, मैं कैसे उनकी मोहिनी मूर्ति देख सकूँगी। जिनके नामों में इतना आकर्षण है, इतना माधुर्य है और इतना रस भरा हुआ है- बता, मैं उन्‍हें कैसे देख पाऊँगी? और कैसे उनकी मधुर मुरली सुन सकूँगी? मुझे भगवान के प्रेम का वह रहस्‍य बतला, जिसमें तू निरन्‍तर डूबी रहती है और जिसके एक कण का दूर से दर्शन करके ही मेरी ऐसी दशा हो चली है।'

दासी ने पहले-पहले तो टालने की कोशिश की; परंतु जब रानी बहुत पीछे पड़ीं, तब एक दिन उसने कहा, ‘महारानी जी ! आप यह बात मुझसे न पूछिये। आप राजमहल के सुखों को भोगिये। क्‍यों व्‍यर्थ इस मार्ग में आकर दु:खों को निमंत्रण देकर बुलाती हैं? यह रास्‍ता काँटों से भरा है। इसमें कहीं सुख का नामो-निशान नहीं है। पद-पद पर लहूलुहान होना पड़ता है, तब कहीं इसके समीप पहुँचा जा सकता है। पहुँचने पर तो अलौकिक आनन्‍द मिला है; परंतु मार्ग की कठिनाइयाँ इतनी भयानक हैं कि उनको सुनकर ही दिल दहल जाता है। रात-दिन हृदय में भट्टी जली रहती है, आँसुओं की धारा बहती है; परंतु वह इस आग को बुझाती नहीं, घी बनकर इसे और भी उभाड़ती है। सिसकना और सिर पीटना तो नित्‍य का काम होता है। आप राजरानी हैं, भोग-सुखों में पली-पोसी हैं, यह पंथ तो विषय विरागियों का है- जो संसार के सारे भोग-सुखों से नाता तोड़ चुके हैं या तोड़ने को तैयार हैं। और कहीं यदि मोहन की तनिक-सी माधुरी देखने को मिल गयी, फिर तो सर्वस्‍व ही हाथ से चला जायगा। इसलिये न तो यह सब पूछिये और न उस ओर ताकिये ही।'

यह सब सुनकर रानी रत्नावती की उत्‍कण्‍ठा और भी बढ़ गयी। वे बड़े आग्रह से श्रीकृष्‍ण-प्रेम का रहस्‍य पूछने लगीं। आखिर, उनके मन में भोग-वैराग्‍य देखकर तथा उन्‍हें अधिकारी जानकर श्रीकृष्‍ण-प्रेम में डूबी हुई दासी ने उन्‍हें श्रीकृष्‍ण-प्रेम का दुर्लभ उपदेश किया।

अब तो दासी रानी की गुरु हो गयी, रानी गुरु बुद्धि से उसका आदर-सत्‍कार करने लगीं। विलास भवन भगवान का लीला भवन बन गया। दिन-रात हरि चर्चा और उनकी अनूप रूप माधुरी का बखान होने लगा। सत्‍संग का प्रभाव होता ही है, फिर सच्‍चे भगवत्‍प्रेमियों के संग का तो कहना ही क्‍या। रानी का मन-मधुकर श्‍यामसुन्‍दर ब्रज नन्‍दन के मुखकमल के मकरन्‍द का पान करने के लिये छटपटा उठा। वे रोकर दासी से कहने लगीं-

‘कछुक उपाय कीजै, मोहन दिखाय दीजै,
तब ही तो जीजै, वे तो आनि उर अरे हैं!’

‘कुछ उपाय करो, मुझे मोहन के दर्शन कराओ; तभी यह जीवन रहेगा। आह ! वे मेरे हृदय में आकर अड़ गये हैं।'

दासी ने कहा- "महारानी ! दर्शन सहज नहीं है, जो लोग राज छोड़कर धूल में लुट पड़ते हैं तथा अनेकों उपाय करते हैं, वे भी उस रूप माधुरी के दर्शन नहीं पाते। हाँ, उन्‍हें वश में करने का एक उपाय है- वह है प्रेम। आप चाहें तो प्रेम से उन्‍हें अपने वश में कर सकती हैं।'

रानी के मन में जँच गया था कि भगवान से बढ़कर मूल्‍यवान वस्‍तु और कुछ भी नहीं है। इस लोक और परलोक का सब कुछ देने पर भी यदि भगवान मिल जायँ तो बहुत सस्ते ही मिलते हैं। जिसके मन मे यह निश्‍चय हो जाता है कि श्रीहरि अमूल्‍य निधि हैं और वे ही मेरे परम प्रियतम हैं, वह उनके लिये कौन-से त्‍याग को बड़ी बात समझता है। वह तन-मन, भोग-मोक्ष सब कुछ समर्पण करके भी यही समझता है कि मेरे पास देने को है ही क्‍या और वास्‍तव में बात भी ऐसी ही है। भगवान तन-मन, साधन-प्रयत्‍न या भोग-मोक्ष के बदले में थोड़े ही मिल सकते हैं। वे तो कृपा करके ही अपने दर्शन देते हैं और कृपा का अनुभव उन्‍हीं को होता है, जो संसार के भोगों को तुच्‍छ समझकर केवल उन्‍हीं से प्रेम करना चाहते हैं। रानी रत्नावती के मन में यह प्रेम का भाव कुछ-कुछ जाग उठा। उन्‍होंने दासी-गुरु की अनुमति के अनुसार नीलम का एक सुन्‍दर विग्रह बनाकर तन-मन-धन से उसकी सेवा आरम्‍भ की। वे अब जाग्रत, स्‍वप्‍न दोनों ही स्थितियों में भगवत्‍प्रेम का अपूर्व आनन्‍द लूटने लगीं। राजरानी भोग से मुँह मोड़कर भगवत्‍प्रेम के पावन पथ पर चल पड़ीं। एक के साथ दूसरी सजातीय वस्‍तु आप ही आती है। भजन के साथ-साथ संत-समागम भी होने लगा। सहज कृपालु महात्‍मा लोग भी कभी-कभी दर्शन देने लगे।

एक बार एक पहुँचे हुए प्रेमी महात्‍मा पधारे। वे वैराग्‍य की मूर्ति थे और भगवत्‍प्रेम में झूम रहे थे। रानी के मन में आया, मेरा रानीपन सत्‍संग में बड़ा बाधक हो रहा है। परंतु यह रानीपन है तो आरोपित ही न? यह मेरा स्‍वरूप तो है ही नहीं, फिर इसे मैं पकड़े रहूँ और अपने मार्ग में एक बड़ी बाधा रहने दूँ? उन्‍होंने दासी-गुरु से पूछा- "भला, बताओ तो मेरे इन अंगों में कौन-सा अंग रानी है, जिसके कारण मुझे सत्‍संग के महान सुख से विमुख रहना पड़ता है?" दासी ने मुसकरा दिया। रानी ने आज पद-मर्यादा का बाँध तोड़ दिया। दासी ने रोका- परंतु वह नहीं मानी। जाकर महात्‍मा के दर्शन किये और सत्‍संग से लाभ उठाया।

राजा का क्रोध

राज-परिवार में चर्चा होने लगी। रत्नावती जी के स्‍वामी राजा माधो सिंह दिल्‍ली थे। मंत्रियों ने उन्‍हें पत्र लिखा कि ‘रानी कुल की लज्‍जा-मर्यादा छोड़कर मोडों की[2] भीड़ में जा बैठी है।' पत्र माधो सिंह के पास पहुँचा। पढ़ते ही उनके तन-मन में आग-सी लग गयी। आँखें लाल हो गयीं। शरीर क्रोध से काँपने लगा। दैवयोग से रत्नावती जी के गर्भ से उत्‍पन्‍न राजा माधो सिंह का पुत्र कुँवर प्रेम सिंह वहाँ आ पहुँचा और उसने पिता के चरणों में सिर टेककर प्रणाम किया। प्रेम सिंह पर भी माता का कुछ असर था। उसके ललाट पर तिलक और गले में तुलसी की माला शोभा पा रही थी। एक तो राजा को क्रोध हो ही रहा था, फिर पुत्र को इस प्रकार के वेश में देखकर तो उनको बहुत ही क्षोभ हुआ। राजा ने अवज्ञा भरे शब्‍दों में तिरस्‍कार करते हुए कहा, ‘आव मोडी का’- ‘साधुनी के लड़के आ।' पिता की भाव-भंगी देखकर और उनकी तिरस्‍कारयुक्त वाणी सुनकर राजकुमार बहुत ही दु:खी हुआ और चुपचाप वहाँ से चला गया।

लोगों से पूछने पर पिता की नाराजगी का प्रेम सिंह को पता लगा। प्रेम सिंह संस्‍कारी बालक था। उसके हृदय में पूर्व जन्‍म की भक्ति के भाव थे और थी माता की शिक्षा। उसने विचारा- ‘पिता जी ने बहुत उत्तम आशीर्वाद दिया, जो मुझे ‘मोडी का लड़का’ कहा। अब तो मैं सचमुच मोडी का लड़का मोडा (साधु) ही बनूँगा।' यह सोचकर वह माता की भक्तिपूर्ण भावना पर बड़ा ही प्रसन्‍न हुआ और उसी क्षण उसने माता को पत्र लिखा-

‘माता जी ! तुम धन्‍य हो, जो तुम्‍हारे हृदय में भगवान की भक्ति जाग्रत हुई है और तुम्‍हारा मन भगवान की ओर लगा है। भगवान की बड़ी कृपा से ही ऐसा होता है। अब तो इस भक्ति को सर्वथा सच्‍ची भक्ति बनाकर ही छोड़ो। प्राण चले जायँ, पर टेक न जाय। पिता जी ने आज मुझे ‘मोडी का लड़का’ कहा है। अतएव अब मैं सचमुच मोडी का ही पुत्र बनना और रहना चाहता हूँ। देखो, मेरी यह प्रार्थना व्‍यर्थ न जाय।'

पत्र पढ़ते ही रानी को प्रेमावेश हो गया। आह ! सच्‍चा पुत्र तो वही है जो अपनी माता को श्री भगवान की ओर जाने के लिये प्रेरणा करता है और उसमें उत्साह भरता है! वे प्रेम के पथ पर तो चढ़ ही चुकी थीं। आज से राजवेश छोड़ दिया, राजसी गहने-कपड़े उतार दिये, इत्र-फुलेल का त्‍याग कर दिया और सादी पोशाक में रहकर भजन-कीर्तन करने लगीं। पुत्र को लिख दिया- ‘भई मोडी आज, तुम हित करि जाँचियो।' ‘मैं आज सचमुच मोडी हो गयी हूँ, प्रेम से आकर जाँच लो।'

कुँअर प्रेम सिंह को पत्र मिलते ही वह आनन्‍द से नाच उठा। बात राजा माधो सिंह तक पहुँची, उन्‍हें बड़ा क्षोभ हुआ और वे पुत्र को मारने के लिये तैयार हो गये। मंत्रियों ने माधो सिंह को बहुत समझाया, परंतु वह नहीं माना। इधर प्रेम सिंह को भी क्षोभ हो गया। आखिर लोगों ने दोनों को समझा-बुझाकर शान्‍त किया; परन्‍तु राजा माधो सिंह के मन में रानी के प्रति जो क्रोध था, वह शान्‍त नहीं हुआ। वे रानी को मार डालने के विचार से रात को ही दिल्‍ली से चल दिये। वे आँबेर पहुँचे और लोगों से मिले। लोगों ने रानी की बातें सुनायीं। रानी के विरोधियों ने कुछ बढ़ाकर कहा, जिससे माधो सिंह का क्षोभ और भी बढ़ गया।

माधो सिंह का कुचक्र

कई कुचक्रियों से मिलकर माधो सिंह रानी को मारने की तरकीब सोचने लगे। आखिर षडयंत्रकारियों ने यह निश्‍चय किया कि पिंजरे में जो सिंह है, उसे ले जाकर रानी के महल में छोड़ दिया जाय। सिंह रानी को मार डालेगा, तब सिंह को पकड़कर यह बात फैला दी जायगी कि सिंह पिंजरे से छूट गया था, इससे यह दुर्घटना हो गयी। निश्‍चय के अनुसार ही काम किया गया, महल में सिंह छोड़ दिया गया। रानी उस समय पूरा कर रही थीं; दासी ने सिंह को देखते ही पुकारकर कहा- ‘देखिये, सिंह आया।'

भगवान की लीला

रानी की स्थिति बड़ी विचित्र थी, हृदय आनन्‍द से भरा था, नेत्रों में अनुराग के आँसू थे, इन्द्रियाँ तमाम सेवा में लगी थीं। उन्‍होंने सुना ही नहीं। इतने में सिंह कुछ समीप आ गया, दासी ने फिर पुकारकर कहा- ‘रानी जी ! सिंह आ गया।' रानी ने बड़ी शान्ति से कहा, ‘बड़े ही आनन्‍द की बात है, आज मेरे बड़े भाग्‍य से मेरे प्रह्लाद के स्‍वामी श्री नृसिंह जी पधारे हैं; आइये, इनकी पूजा करें।' इतना कहकर रानी पूजा की सामग्री लेकर बड़े ही सम्‍मान के साथ पूजा करने दौड़ीं। सिंह समीप आ ही गया था; परंतु अब वह सिंह नहीं था। रत्नावती जी के सामने तो साक्षात नृसिंह जी उपस्थित थे। रानी ने बड़े ही सुन्‍दर, मनोहर और आकर्षक रूप में परम शोभा-सम्‍पन्‍न भगवान नृसिंहदेव के दर्शन किये। उन्‍होंने प्रणाम करके पाद्य-अर्घ्‍य दिया, माला पहनायी, तिलक दिया, धूप-दीप किया, भोग लगाया और प्रणाम-आरती करके वे उनकी स्‍तु‍ति करने लगीं।

कुछ ही क्षणों बाद सिंहरूप प्रभु महल से निकले और जो लोग पिंजरा लेकर रत्नावती जी को सिंह से मरवाने आये थे, सिंहरूप प्रभु ने बात-की-बात में उनको परलोक पहुँचा दिया और स्‍वयं मामूली सिंह बनकर पिंजरे में प्रवेश कर गये।

लागों ने दौड़कर राजा माधो सिंह को सूचना दी कि ‘रानी ने श्रीनृसिंह भगवान मानकर सिंह की पूजा की, सिंह ने उनकी पूजा स्‍वीकार कर ली और बाहर आकर आदमियों को मार डाला; रानी अब आनन्‍द से बैठी भजन कर रही हैं।'

अब तो माधो सिंह की आँखें खुलीं। भक्त का गौरव उनके ध्‍यान में आया। सारी दुर्भावना क्षणभर में नष्‍ट हो गयी। राजा दौड़कर महल में आये और प्रणाम करने लगे। रानी भगवत्‍सेवा में तल्‍लीन थीं। दासी ने कहा- "महाराज प्रणाम कर रहे हैं।" तब रानी ने इधर ध्‍यान दिया और वे बोलीं कि ‘महाराज श्रीनन्‍दलाल जी को प्रणाम कर रहे हैं।' रानी की दृष्टि भगवान में गड़ी हुई थी। राजा ने नम्रता से कहा- "एक बार मेरी ओर तो देखो।' रानी बोलीं- "महाराज ! क्‍या करूँ, ये आँखें इधर से हटती ही नहीं; मैं बेबस हूँ।" राजा बोले- "सारा राज और धन तुम्‍हारा है, तुम जैसे चाहो, इसे काम में लाओ।" रानी ने कहा- "स्‍वामिन ! मेरा तो एकमात्र धन ये मेरे श्‍यामसुन्‍दर हैं, मुझे इनके साथ बड़ा ही आनन्‍द मिलता है। आप मुझको इन्‍हीं में लगी रहने दीजिये।"

राजा प्रेम और आनन्‍द में गद्गद हो गये और रानी की भक्ति के प्रभाव से उनका चित्त भी भगवन की ओर खिंचने लगा। जिनकी ऐसी भक्त पत्‍नी हो, उनपर भगवान की कृपा क्‍यों न हो! घर में एक भी भक्त होता है तो वह कुल को तार देता है।

  • एक समय महाराजा मान सिंह अपने छोटे भाई माधो सिंह के साथ किसी बड़ी भारी नदी को नाव से पार कर रहे थे। तूफान आ गया, नाव डूबने लगी। मान सिंह जी ने घबराकर कहा- "भाई ! अब तो बचने का कोई उपाय नहीं है।" माधो सिंह बोले- "आपकी अनुज वधू अर्थात मेरी पत्‍नी बड़ी भक्ता है, उसकी कृपा से हम लोग पार हो जायँगे।" दोनों ने रानी रत्नावती का ध्‍यान किया। जादू की तरह नाव किनारे लग गयी। दोनों भाई नया जन्‍म पाकर आनन्‍दमग्‍न हो गये। यह तो मामूली नाव थी और नदी भी मामूली ही थी। भगवान के सच्‍चे भक्त का आश्रय करके तो बड़े-से-बड़ा पापी मनुष्‍य बात-की-बात में दुस्‍तर भवसागर से तर जा सकता है। विश्‍वास होना चाहिये।

अब तो मान सिंह जी के मन में रानी के दर्शन की लालसा जाग उठी, आकर उन्‍होंने दर्शन किया! रानी का जीवन प्रेममय हो गया। वह अपने प्रियतम श्‍यामसुन्‍दर के साथ घुल मिल गयीं।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 732
  2. राजस्थान की बोली में साधुओं का अवज्ञा भरा नाम।

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