राधादामोदर मन्दिर, वृन्दावन

राधादामोदर मन्दिर, वृन्दावन
राधादामोदर मन्दिर, वृन्दावन
विवरण 'राधादामोदर मन्दिर' वृन्दावन नगर, मथुरा में स्थित है। राधा दामोदर मन्दिर 'गौड़ीय संप्रदाय' का ही नहीं अपितु अन्य संप्रदायों के भक्तों और अनुयाईयों का भी आस्था का केंद्र रहा है।
राज्य उत्तर प्रदेश
ज़िला मथुरा
निर्माता जीव गोस्वामी
स्थापना संवत 1599 माघ शुक्ला दशमी[1]
प्रसिद्धि हिन्दू धर्म स्थल
कब जाएँ कभी भी
रेलवे स्टेशन मथुरा जंक्शन, मथुरा छावनी
बस अड्डा वृन्दावन बस अड्डा
यातायात बस, कार, ऑटो आदि
क्या देखें इस्कॉन मन्दिर, बांके बिहारी जी, निधिवन, विशाखा कुण्ड, रंगनाथ जी मन्दिर, गोविन्द देव मन्दिर, मदन मोहन मन्दिर, जुगल किशोर मन्दिर
कहाँ ठहरें होटल व धर्मशालाएँ
क्या ख़रीदें ठाकुर जी के वस्त्र, प्रतिमाएँ व श्रृंगार सामग्री
एस.टी.डी. कोड 05664
ए.टी.एम लगभग सभी
सावधानी बंदरों से सावधान रहें
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अन्य जानकारी इस मंदिर के सम्बंध में कहावत है कि गौड़ीय संप्रदाय के संत सनातन गोस्वामी प्रतिदिन श्री गिरिराज जी की परिक्रमा करने यहाँ से गोवर्धन जाते थे।
अद्यतन‎

राधादामोदर मन्दिर वृन्दावन नगर, मथुरा में स्थित है। उत्तर प्रदेश में मथुरा, दिल्ली और आगरा जाने वाली सड़क पर स्थित है। वृन्दावन मथुरा से होकर पहुँचा जा सकता है। राधा दामोदर मन्दिर 'गौड़ीय संप्रदाय' का ही नहीं अपितु अन्य संप्रदायों के भक्तों और अनुयाईयों का भी आस्था का केंद्र रहा है। इसी मंदिर को 'इस्कॉन मन्दिर' के संस्थापक प्रभुपाद महाराज ने अपने वृन्दावन प्रवास के दौरान सर्वप्रथम आराधना का केंद्र बनाया था।

इतिहास

वृन्दावन नगर के सेवाकुंज और लोई बाज़ार क्षेत्र में स्थित 'राधा दामोदर मंदिर' की स्थापना रूप गोस्वामी के शिष्य जीव गोस्वामी ने संवत 1599 माघ शुक्ला दशमी तिथि को की थी। इसी मंदिर में छह गोस्वामियों- रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, भक्त रघुनाथ, जीव गोस्वामी, गोपाल भट्ट, रघुनाथदास ने अपनी साधना स्थली बनाई। रूप गोस्वामी 'सेवाकुंज' के अन्तर्गत यहीं भजन कुटी में वास करते थे। यहीं पर तत्कालीन गोस्वामीगण एवं भक्तजन सम्मिलित होकर इष्टगोष्ठी करते थे तथा रघुनाथ भट्ट अपने मधुर कंठ से उस वैष्णव सभा में 'श्रीमद्भागवत' की व्याख्या करते। यहीं पर रूप गोस्वामी ने 'श्रीभक्तिरसामृतसिन्धु', 'उज्ज्वलनीलमणि' एवं अन्यान्य भक्ति ग्रन्थों का संकलन किया। युवक जीव गोस्वामी, रूप गोस्वामी की सब प्रकार से सेवा में नियुक्त थे। रूप गोस्वामी ने स्वयं अपने हाथों से श्री राधादामोदर विग्रह को प्रकाश कर जीव गोस्वामी को सेवा-पूजा के लिए अर्पण किया था। 'सेवाप्राकट्य' ग्रन्थ के अनुसार 1599 सम्वत में माघ शुक्ल दशमी तिथि में श्रीराधादामोदर की प्रतिष्ठा हुई। मूल श्री राधादामोदर विग्रह जयपुर में विराजमान हैं। उनकी प्रतिभू विग्रह स्वरूप वृन्दावन में विराजमान है। इनके साथ सिंहासन में श्री वृन्दावनचन्द्र, श्री छैलचिकनिया, श्री राधाविनोद और श्री राधामाधव आदि विग्रह विराजमान हैं। मन्दिर के पीछे जीव गोस्वामी तथा कृष्णदास गोस्वामी की समाधियाँ प्रतिष्ठित हैं। मन्दिर के उत्तर भाग में श्रीपाद रूप गोस्वामी की भजन कुटी और समाधि मन्दिर स्थित हैं, पास ही श्रीभूगर्भ गोस्वामी की समाधि है।

किंवदंती

इस मंदिर के संबंध में कहावत है कि गौड़ीय संप्रदाय के संत सनातन गोस्वामी इस मंदिर में निवास के दौरान प्रतिदिन श्री गिरिराज जी की परिक्रमा करने यहाँ से गोवर्धन जाते थे। जब वे काफ़ी वृद्ध हो गए तो एक दिन गिरिराज जी की परिक्रमा करने नहीं जा सके, तब भगवान श्रीकृष्ण ने एक बालक के रूप में आकर उन्हें एक डेढ़ हाथ लम्बी वट पत्राकार श्याम रंग की गिरिराज शिला दी। उस पर भगवान के चरण चिह्न एवं गाय के खुर का निशान अंकित था। बालक रूप भगवान ने सनातन गोस्वामी से कहा कि बाबा अब तुम बहुत वृद्ध हो गए हो। तुमको गिरिराजजी की परिक्रमा करने के नियम को पूरा करने में काफ़ी तक़लीफ़ हो रही है। इस शिला की परिक्रमा करके अपने नियम को पूरा कर लिया करो। बालरूप भगवान की आज्ञा मानकर सनातन गोस्वामी इसी शिला की परिक्रमा करके अपना नियम प्रतिदिन पूरा करने लगे। सनातन गोस्वामी द्वारा इस शिला की परिक्रमा लगाने के कारण यहाँ आने वाला हर श्रद्धालु शिला की परिक्रमा करके अपने आप को धन्य महसूस करता है।

कार्तिक मास में नियम सेवा के दिनों में हज़ारों नर-नारी 'श्रीराधा दामोदर' तथा गिरिराज जी की शिला की चार परिक्रमा लगाकर अति आनंद लाभ प्राप्त करते हैं। वर्तमान काल में इस मंदिर में श्रीवृन्दावनचंद्र तथा दो युगल श्रीविग्रह भी यहाँ सेवित हैं। इस्कॉन संस्था की स्थापना से पूर्व जब स्वामी प्रभुपाद महाराज पश्चिमी बंगाल से यहाँ आए तो उन्होंने इस मंदिर को अपनी साधना का प्रमुख केंद्र बनाया। यहीं से उन्होंने पूरे विश्व में श्रीकृष्ण भक्ति का संदेश पहुँचाया और इस्कॉन संस्था की स्थापना की।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 'सेवाप्राकट्य' ग्रन्थ के अनुसार

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