राजा श्वेतकि की कथा

महाभारत आदि पर्व के ‘खाण्डव दाह पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 222 के अनुसार राजा श्वेतकि की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

राजन! सुना जाता है, प्राचीनकाल में इन्द्र के समान बल और पराक्रम से सम्पन्न श्वेतिक नाम के राजा थे। उस समय उनके जैसा यज्ञ करने वाला, दाता और बुद्धिमान दूसरा कोई नहीं था। उन्होंने पर्याप्त दक्षिणा वाले अनेक बड़े-बड़े़ यज्ञों का अनुष्ठान किया था। राजन! प्रतिदिन उनके मन में यज्ञ और दान के सिवा दूसरा कोई विचार ही नहीं उठता था। वे यज्ञकर्मों के आरम्भ और नाना प्रकार के दानों में ही लगे रहते थे। इस प्रकार वे बुद्धिमान नरेश ऋत्विजों के साथ यज्ञ किया करते थे। यज्ञ करते-करते उनके ऋत्विजों की आँखे धूएँ से व्याकुल हो उठी। दीर्घकाल तक आहुति देते-देते वे सभी खिन्न हो गये थे। इसलिये राजा को छोड़कर चले गये। तब राजा ने उन ऋत्विजों को पुनः यज्ञ के लिये प्रेरित किया। परंतु जिनके नेत्र दुखने लगे थे, वे ऋत्विज उनके यज्ञ में नहीं आये। तब राजा ने उनकी अनुमति लेकर दूसरे ब्राह्मणों को ऋत्विज बनाया और उन्हीं के साथ अपने चालू किये हुए यज्ञ को पूरा किया। इस प्रकार यशपरायण राजा के मन में किसी समय यह संकल्प उठा कि मैं सौ वर्षों तक चालू रहने वाला एक सत्र प्रारम्भ करूँ; परंतु उन महामना को वह यज्ञ आरम्भ करने के लिये ऋत्विज ही नहीं मिले। उन महायशस्वी नरेश ने अपने सुहृदों को साथ लेकर इस कार्य के लिये बहुत बड़ा प्रयत्न किया। पैरों पर पड़कर, सान्त्वनापूर्ण वचन कहकर और इच्छानुसार दान देकर बार-बार निरालस्यभाव से ऋत्विजों को मनाया, उनसे यज्ञ कराने के लिये अनुनय-विनय की; परंतु उन्होंने अमित तेजस्वी नरेश के मनोरथ को सफल नहीं किया। तब उन राजर्षि ने कुछ कुपित होकर आश्रमवासी महर्षियों से कहा - ‘ब्राह्मणों! यदि मैं पतित होऊँ और आप लोगों की शुश्रूषा से मुँह मोड़ता होऊँ तो निन्दित होने के कारण आप सभी ब्राह्मणों के द्वारा शीघ्र की त्याग देने योग्य हूँ, अन्यथा नहीं; अतः यज्ञ कराने के लिये मेरी इस बढ़ी हुई श्रद्धा में आप लोगों को बाधा नहीं डालनी चाहिये। ‘विप्रवरो! इस प्रकार बिना किसी अपराध के मेरा परित्याग करना आप लोगों के लिये कदापि उचित नहीं है। मैं आपकी शरण में हूँ। आप लोग कृपापूर्वक मुझ पर प्रसन्न होइये। ‘श्रेष्ठ द्विजगण! मैं कार्यार्थी होने के कारण सान्त्वना देकर दान आदि देने की बात कहकर यथार्थ वचनों द्वारा आप लोगों को प्रसन्न करके आपकी सेवा में अपना कार्य निवेदन कर रह हूँ। ‘द्विजोत्तमो! यदि आप लोगों ने द्वेषवश मुझे त्याग दिया तो मैं यह यज्ञ कराने के लिये दूसरे ऋत्विजों के पास जाऊँगा।’ इतना कहकर राजा चुप हो गये। परन्तु जनमेजय! जब वे ऋत्विज राजा का यज्ञ कराने के लिये उद्यत न हो सके, तब वे रुष्ट होकर उन नृपश्रेष्ठ से बोले - ‘भूपालशिरोमणे! आपके यज्ञकर्म तो निरन्तर चलते रहते हैं। ‘अतः सदा कर्म में लगे रहने के कारण हम लोग थक गये हैं, पहले के परिश्रम से हमारा कष्ट बढ़ गया है। ऐसी दशा में बुद्धिमोहित होने के कारण उतावले होकर आप चाहें तो हमारा त्याग कर सकते है। निष्पाप नरेश! आप तो भगवान रुद्र के समीप जाइये। अब वे ही आपका यज्ञ करायेंगे।’[1]

ब्राह्मणों का यह आक्षेपयुक्त वचन सुनकर राजा श्वेतकि को बड़ा क्रोध हुआ। वे कैलास पर्वत पर जाकर उग्र तपस्या में लग गये। राजन! तीक्ष्ण व्रत का पालन करने वाले राजा श्वेतकि मन-इन्द्रियों के संयमपूर्वक महादेव जी के आराधना करते हुए बहुत दिनों तक निराहार खडे़ रहे। वे कभी बारहवें दिन और कभी सोहलवें दिन फल-मूल का आहार कर लेते थे। दोनों बाँहे ऊपर उठाकर एकटक देखते हुए राजा श्वेतकि एकाग्रचित्त हो छः महीनों तक ठूँठ की तरह अविचल भाव से खड़े रहे। भारत! उन नृपश्रेष्ठ को इस प्रकार भारी तपस्या करते देख भगवान शंकर ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिया। और स्नेहपूर्वक गम्भीर वाणी में भगवान ने उनसे कहा - ‘परन्तु! नरश्रेष्ठ! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूँ। ‘भूपाल! तुम्हारा कल्याण हो। तुम जैसा चाहते हो, वैसा वर माँग लो।’ अमित तेजस्वी रुद्र का यह वचन सुनकर राजर्षि श्वेतकि ने परमात्मा शिव के चरणों में प्रणाम किया और इस प्रकार कहा-। ‘देवदेवश! सुरेश्वर! यदि मेरे ऊपर आप सर्वलोक वन्दित भगवान प्रसन्न हुए हैं तो स्वयं चलकर मेरा यज्ञ करायें।’ राजा की कही हुई यह बात सुनकर भगवान शिव प्रसन्न होकर मुस्कुराते हुए बोले-। ‘राजन! यज्ञ कराना हमारा काम नहीं हैं; परंतु तुमने वही वर माँगने के लिये भारी तपस्या की है, अतः परंतु नरेश! मैं एक शर्त पर तुम्हारा यज्ञ कराऊँगा।’

रुद्र बोले - राजेन्द्र! यदि तुम एकाग्रचित्त हो ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए बारह वर्षों तक घृत की निरन्तर अविच्छिन्न धारा द्वारा अग्निदेव को तृप्त करो तो मुझसे जिस कामना के लिये प्रार्थना कर रहे हो, उसे पाओगे। भगवान रुद्र के ऐसा कहने पर राजा श्वेतकि ने शूलपाणि शिव की आज्ञा के अनुसार सारा कार्य सम्पन्न किया। बारहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर भगवान महेश्वर पुनः आये। सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति करने वाले भगवान शंकर नृपश्रेष्ठ श्वेतकि को देखते ही अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले-। ‘भूपाल शिरोमणे! तुमने इस वेदविहित कर्म के द्वारा मुझे पूर्ण संतुष्ट किया है, परंतु परंतु! शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ कराने का अधिकार ब्राह्मणों को ही है। ‘अतः परंतु! मैं स्वयं तुम्हारा यज्ञ नहीं कराऊँगा। पृथ्वी पर मेरे ही अंशभूत एक महाभाग श्रेष्ठ द्विज है। ‘वे दुर्वासा नाम से विख्यात हैं। महातेजस्वी दुर्वासा मेरी आज्ञा से तुम्हारा यज्ञ करायेंगे। तुम सामग्री जुटाओ।’ भगवान रुद्र का कहा हुआ यह वचन सुनकर राजा पुनः अपने नगर में आये और यज्ञ सामग्री जुटाने लगे। तदनन्तर सामग्री जुटाकर वे पुनः भगवान रुद्र के पास गये और बोले - ‘महादेव! आपकी कृपा से मेरी यज्ञ सामग्री तथा अन्य सभी आवश्यक उपकरण जुट गये। अब कल मुझे यज्ञ की दीक्षा मिल जानी चाहिये।’ महामना राजा का यह कथन सुनकर भगवान रुद्र ने दुर्वासा को बुलाया और कहा - ‘द्विजश्रेष्ठ! ये महाभाग राजा श्वेतकि हैं। विपेन्द्र! मेरी आज्ञा से तुम इन भूमिपाल का यज्ञ कराओ।’ यह सुनकर महर्षि ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली।[2]

तदनन्तर यथा समय विधिपूर्वक उन महामना नरेश का यज्ञ आरम्भ हुआ। शास्त्र में जैसा बताया गया है, उसी ढंग से सब कार्य हुआ। उस यज्ञ में बहुत सी दक्षिणा दी गयी। उन महामना नरेश का वह यज्ञ पूरा होने पर उसमें जो महातेजस्वी सदस्य और ऋत्विज दीक्षित हुए थे, वे सब दुर्वासा जी की आज्ञा ले अपने-अपने स्थान को चले गये। राजन! वे महान सौभाग्यशाली नरेश भी वेदों के पारंगत महाभाग ब्राह्मणों द्वारा सम्मानित हो उस समय अपनी राजधानी में गये। उस समय वन्दीजनों ने उनका यश गाया और पुरवासियों ने अभिनन्दन किया। नृपश्रेष्ठ राजर्षि श्वेतकि का आचार-व्यवहार ऐसा ही था। वे दीर्घकाल के पश्चात अपने यज्ञ के सम्पूर्ण सदस्यों तथा ऋत्विजों सहित देवताओं से प्रशंसित हो स्वर्गलोक में गये। उनके यज्ञ में अग्नि ने लगातार बारह वर्षों तक घृतपान किया था। उस अद्वितिय यज्ञ में निरन्तर घी की अविच्छिन्न धाराओं से अग्निदेव को बड़ी तृप्ति प्राप्त हुई। अब उन्हें फिर दूसरे किसी का हविष्य ग्रहण करने की इच्छा नहीं रही। उनका रंग सफेद हो गया, कान्ति फीकी पड़ गयी तथा वे पहले की भाँति प्रकाशित नहीं होते थे। तब भगवान अग्निदेव के उदर में विकार हो गया। वे तेज से हीन हो ग्लानि को प्राप्त होने लगे। अपने को तेज से हीन देख अग्निदेव ब्रह्मा जी के लोकपूजित पुण्यधाम में गये। वहाँ बैठे हुए ब्रह्मा जी से वे यह वचन बोले - ‘भगवन! राजा श्वेतकि ने अपने यज्ञ में मुझे परम संतुष्ट कर दिया। ‘परंतु मुझे अत्यन्त अरुचि हो गयी है, जिस मैं किसी प्रकार दूर नहीं कर पाता। जगत्पते! उस अरुचि के कारण मैं तेज और बल से हीन होता जा रह हूँ। अतः मैं चाहता हूँ कि आपकी कृपा से मैं स्वस्थ हो जाऊँ; मेरी स्वाभाविक स्थिति सुदृढ़ बनी रहे।’ अग्निदेव की यह बात सुनकर सम्पूर्ण जगत के स्रष्टा भगवान ब्रह्मा जी हव्यवाहन अग्नि से हँसते हुए से इस प्रकार बोले - ‘महाभाग! तुमने बारह वर्षों तक वसुधारा की आहुति के रूप में प्राप्त हुई घृतधारा का उपभोग किया है। इसीलिये तुम्हें ग्लानि प्राप्त हुई है। हव्यवाहन! तेज से हीन होने के कारण तुम्हें सहसा अपने मन में ग्लानि नहीं आने देनी चाहिये। वह्ये! तुम फिर पूर्ववत स्वरूप हो जाआगे। मैं समय पाकर तुम्हारी अरुचि नष्ट कर दूँगा। ‘पूर्वकाल में देवताओं के आदेश से तुमने दैत्यों के जिस अत्यन्त घोर निवास स्थान खाण्डववन को जलाया था, वहाँ इस समय सब प्रकार के जीव-जन्तु आकर निवास करते हैं। विभावसो! उन्हीं के मेद से तृप्त होकर तुम स्वस्थ हो सकोगे।’ ‘उस वन को जलाने के लिये तुम शीघ्र ही जाओ। तभी इस ग्लानि से छुटकारा पा सकोगे।’ परमेष्ठी ब्रह्मा जी के मुख से निकली हुई यह बात सुनकर अग्निदेव बड़े वेग से वहाँ दौडे़ गये। खाण्डववन में पहुँचकर उत्तम बल का आश्रय ले वायु का सहारा पाकर कुपित अग्निदेव सहजा प्रज्वलित हो उठे। खाण्डव वन को जलते देख वहाँ रहने वाले प्राणियों ने उस आग को बुझाने के लिये बड़ा यत्न किया। सैंकड़ों और हजारो की संख्या में हाथी अपनी सूँडों में जल लेकर शीघ्रतापूर्वक दौडे़ आते और क्रोधपूर्वक उतावली के साथ आग पर उस जल को उडे़ल दिया करते थे। अनेक सिर वाले नाग भी क्रोध से मूर्च्छित हो अपने मस्तकों द्वारा अग्नि के समीप शीघ्रतापूर्वक जल की धारा बरसाने लगे। भरतश्रेष्ठ! इसी प्रकार दूसरे-दूसरे जीवों ने भी अनेक प्रकार के प्रहारों (धूल झोंकने आदि) तथा उद्यमों (जल छिड़कने आदि) के द्वारा शीघ्रतापूर्वक उस आग को बुझा दिया।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 222 श्लोक 17-35
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 222 श्लोक 36-58
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 222 श्लोक 59-80

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
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हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
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स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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