राजधर्म का साररूप में वर्णन

महाभारत शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 120 के अनुसार राजधर्म का साररूप में वर्णन इस प्रकार है[1]-

क्षत्रिय के धर्म का वर्णन

युधिष्ठिर ने कहा- भारत! राजधर्म के तत्‍व को जानने वाले पूर्ववर्ती राजाओं ने पूर्वकाल में जिनका अनुष्‍ठान किया हैं, उन अनेक प्रकार के राजोचित बर्तावों का आपने वर्णन किया। भरतश्रेष्‍ठ! आपने पूर्व पुरुषों द्वारा आचरित तथा सज्‍जन सम्‍मत जिन श्रेष्‍ठ राजधर्मो का विस्‍तार पूर्वक वर्णन किया हैं, उन्‍हीं को इस प्रकार संक्षिप्‍त करके बताइये, जिससे उनका विशेष रुप से पालन हो सके। भीष्‍मजी बोले- भूपाल! क्षत्रिय के लिये सबसे श्रेष्‍ठ धर्म माना गया है समस्‍त प्राणियों की रक्षा करना, परंतु यह रक्षा का कार्य कैसे किया जाय, उसको बता रहा हूं, सुनो। जैसे सांप खाने वाला मोर विचित्र पंख धारण करता है, उसी प्रकार धर्मज्ञ राजा को समय-समय पर अपना अनेक प्रकार का रुप प्रकट करना चाहिये। राजा मध्‍यस्‍थ-भाव से रहकर तीक्ष्‍णता, कुटिल नीति, अभय-दान, सरलता तथा श्रेष्‍ठभाव का अवलम्‍बन करे। ऐसा करने से ही वह सुख का भागी होता है। जिस कार्य के लिये जो हितकर हो, उसमें वैसा ही रुप प्रकट करे (उदाहरण के लिये अपराधी को दण्‍ड देते समय उग्र रुप और दीनों पर अनु्ग्रह करते समय शान्‍त एवं दयालु रुप प्रकट करे)।इस प्रकार अनेक रुप धारण करने वाले राजा का छोटा-सा कार्य भी बिगड़ने नहीं पाता है। जैसे शरद-ॠतु का मोर बोलता नहीं, उसी प्रकार राजा को भी मौन रहकर सदा राजकिय गुप्‍त विचारों को सुरक्षित रखना चाहिये। वह मधुर वचन बोले, सौम्‍य-स्‍वरुप से रहे, शोभा सम्‍पन्‍न होवे और शास्‍त्रों का विशेष ज्ञान प्राप्‍त करें। बाढ़ के समय जिस ओर से जल बहकर गांवों को डूबा देने का संकट उपस्थित कर दे, उस स्‍थान पर जैसे लोग मजबूत बांध बांध देते हैं, उसी प्रकार जिन द्वारो से संकट आने की सम्‍भावना हो, उन्‍हें सुदृढ़ बनाने और बंद करने के लिये राजा को सतत प्रावधान रहना चाहिये। जैसे पर्वतों पर वर्षा होने से जो पानी एकत्र होकर नदी या तालाब के रुप में रहता हैं, उसका उपभोग करने के लिये लोग उसका आश्रय लेते हैं, उसी प्रकार राजा को सिद्ध ब्राह्मणों का आश्रय लेना चाहिये तथा जिस प्रकार धर्म का ढोंगी सिर पर जटा धारण करता हैं, उसी तरह राजा को भी अपना स्‍वार्थ सिद्ध करने की इच्‍छा से उच्‍च लक्षणों को धारण करना चाहिये। वह सदा अपराधियों को दण्‍ड देने के लिये उद्यत रहे, प्रत्‍येक कार्य सावधानी के साथ करे, लोगों के आय-व्‍यय देखकर ताड़ के वृक्ष से रस निकालने की भाँति उनसे धनरुपी रस ले (अर्थात् जैसे उस रस के लिये पेड़ को काट नहीं दिया जाता, उसी प्रकार प्रजा का उच्‍छेद न करे) राजा अपने दल के लोगों के प्रति विशुद्ध व्‍यवहार करे। शत्रु के राज्‍य में जो खेती की फसल हो, उसे अपने दल के घोड़ों और बैलों के पैरों से कुचलवा दे। अपना पक्ष बलवान् होने पर ही शत्रुओं पर आक्रमण करे और अपने में कहाँ कैसी दुर्बलता है, इसका भलीभाँति निरीक्षण करता रहे। शत्रु के दोषों को प्रकाशित करे और उसके पक्ष के लोगों को अपने पक्ष में आने के लिये विचलित कर दे। जैसे लोग जंगल से फूल चुनते हैं, उसी प्रकार राजा बाहर से धन का संग्रह करे।[1]

राजा द्वारा शत्रुओं को मारने के लिए योजना बनाना

पर्वत के समान उंचा सिर करके अविचलभाव से बैठे हुए धनी नरेशों को नष्‍ट करे। उनको जताये बिना ही उनकी छाया का आश्रय ले अर्थात उनके सरदारों से मिलकर उनमें फूट डाल दे और गुप्‍तरुप से अवसर देखकर उनके साथ युद्ध छेड़ दे। जैसे मोर आधी रात के समय एकान्‍त स्‍थान में छिपा रहता है, उसी प्रकार राजा वर्षाकाल में शत्रुओं पर चढ़ाई न करके अदृश्‍यभाव से ही महल में रहे। मोर के ही गुण को अपनाकर स्त्रियों से अवलक्षित रहकर विचरे। अपने कवच को कभी न उतारे। स्‍वंय ही शरीर की रक्षा करे। घूमने-फिरने के स्‍थानों पर शत्रुओं द्वारा जो जाल बिछाये गये हों, उनका निवारण करे। राजा सुयोग समझे तो जहाँ शत्रुओं का जाल बिछा हो, वहाँ भी अपने-आपको ले जाय। यदि संकट की सम्‍भावना हो तो गहन वन में छिप जाय तथा जो कुटिल चाल चलने वाले हों, उन क्रोध में भरे हुए शत्रुओं को अत्‍यन्‍त विषैले सर्पो के समान समझकर मार डाले। शत्रु की सेना की पांख काट डाले-उसे दूर्बल कर दे, श्रेष्‍ठ पुरुषों को अपने निकट बसावे। मोर के समान स्‍वेच्‍छानुसार उत्तम कार्य करें-जैसे मोर अपने पंख फैलाता है, उसी प्रकार अपने पक्ष (सेना और सहायकों) का विस्‍तार करें। सबसे बुद्धि-सद्विचार ग्रहण करे और जैसे टिड्डियों का दल जंगल में जहाँ गिरता हैं, वहाँ वृक्षों पर पते तक नहीं छोड़ता, उसी प्रकार शत्रुओं पर आक्रमण करके उनका सर्वस्‍व नष्‍ट कर दे। इसी प्रकार बुद्धिमान् राजा अपने स्‍थान की रक्षा करने वाले मोर के समान अपने राज्‍य का भलीभाँति पालन करें तथा उसी नीति का आश्रय ले, जो अपनी उन्‍नति में सहायक हो। केवल अपनी बुद्धि से मन को वश में किया जाता है।[2]-

राजा द्वारा प्रजा को मधुर वाणी से समझाने की शक्ति

मन्‍त्री आदि दूसरों की बुद्धि के सहयोग से कर्तव्‍य का निश्‍चय किया जाता हैं और शास्‍त्रीय बुद्धि से आत्‍मगुण की प्राप्ति होती हैं। यही शास्‍त्र का प्रयोजन हैं। राजा मधुर वाणी द्वारा समझा-बुझाकर अपने प्रति दूसरे का विश्‍वास उत्‍पन्‍न करे। अपनी शक्ति का भी प्रदर्शन करे तथा अपने विचार और बुद्धि से कर्तव्‍य का निश्‍चय करे। राजा में सब को समझा-बुझाकर युक्ति से काम निकालने की बुद्धि होनी चाहिये। वह विद्वान होने के साथ ही लोगों की कर्तव्‍य की प्ररेणा दे और अकर्तव्‍य की ओर जाने से रोक अथवा जिसकी बुद्धि गूढ़ या गम्‍भीर है, उस धीर पुरुष को उपदेश देने की आवश्‍यकता ही क्‍या है? वह बुद्धिमान् राजा बुद्धि में बृहस्‍पति के समान होकर भी किसी कारणवश यदि निम्‍न श्रेणी की बात कह डाले तो उसे चाहिये कि जैसे तपाया हुआ लोहा पानी में डालने से शान्‍त हो जाता है, उसी तरह अपने शान्‍त स्‍वभाव को स्‍वीकार कर ले। राजा अपने तथा दूसरे को भी शास्‍त्र में बताये हुए समस्‍त कर्मो में ही लगावे। कार्य साधन के उपाय को जानने वाला राजा अपने कार्यो में कोमल-स्‍वभाव, विद्वान तथा शूरवीर मनुष्‍य को तथा अन्‍य जो अधिक बलशाली व्‍यक्ति हों, उनको नियुक्‍त करे। जैसे वाणी के विस्‍त्तृत तार सातों स्‍वरों का अनुसरण करते हैं,उसी प्रकार अपने कर्मचारियों को योग्‍यता-नुसार कर्मो में संलग्‍न देख उन सबके अनुकुल व्‍यवहार करे। राजा को चाहिये कि सबको प्रिय करे, किंतु धर्म में बाधा न आने दे। प्रजागण को ‘यह मेरा ही प्रियगण है ‘ ऐसा समझने वाला राजा पर्वत के समान अविचल बना रहता है।[2] जैसे सूर्य अपनी विस्‍तृत किरणों का आश्रय ले सबकी रक्षा करते है, उसी प्रकार राजा प्रिय और अप्रिय को समान समझकर सुदृढ़ उद्योग का अवलम्‍बन करके धर्म की रक्षा करे। जो लोग कुल, स्‍वभाव और देश के धर्म को जानते हों, मधुरभाषी हों, युवावस्‍था में जिनका जीवन निष्‍कलंक रहा हो, जो हितसाधन में तत्‍पर और घबराहट से रहित हों, जिनमें लोभ का अभाव हों, जो शिक्षित, जितेन्‍द्रीय, धर्मनिष्‍ठ तथा धर्म एवं अर्थ की रक्षा करने वाले हों, उन्‍हीं को राजा अपने समस्‍त कार्यो में लगावे। इस प्रकार राजा सदा सावधान रहकर राज्‍य के प्रत्‍येक कार्य का आरम्‍भ और समाप्ति करे। मन में संतोष रखे और गुप्‍तचरों की सहायता से राष्‍ट्र की सारी बातें जानता रहे।[3]-

राजा में राजधर्म के ज्ञाता होने के गुण

जिसका हर्ष और क्रोध कभी निष्‍फल नहीं होता, जो स्‍वंय ही सारे कार्यो की देखभाल करता है तथा आत्‍मविश्‍वास ही जिसका खजाना हो, उस राजा के लिये यह वसुन्‍धुरा (पृथ्‍वी) ही धन देने वाली बन जाती है। जिसका अनुग्रह सब पर प्रकट है तथा जिसका निग्रह (दण्‍ड देना) भी यर्थाथ कारण से होता है, जो अपनी और अपने राज्‍य की सुरक्षा करता है, वही राजा राजधर्म का ज्ञाता है। जैसे सूर्य उदित होकर प्रतिदिन अपनी किरणों द्वारा सम्‍पूर्ण जगत् को प्रकाशित करते (या देखते) हैं, उसी प्रकार राजा सदा अपनी दृष्टि से सम्‍पूर्ण राष्‍ट्र का निरीक्षण करे। गुप्‍तचरों को बारंबार भेजकर राज्‍य के समाचार जाने तथा स्‍वयं अपनी बुद्धि के द्वारा भी सोच-विचार कर कार्य करे। बुद्धिमान राजा समय पड़ने पर ही प्रजा से धन ले। अपनी अर्थ-संग्रह की नीति किसी के सम्‍मुख प्रकट न करे। जैसे बुद्धिमान मनुष्‍य गाय की रक्षा करते हुए भी उससे दुध दुहता है, उसी प्रकार राजा सदा पृथ्‍वी का पालन करते हुए ही उससे धन का दोहन करे। जैसे मधुमक्‍खी क्रमश: अनेक फूलों से रस का संचय करके शहद तैयार करती है, उसी प्रकार राजा समस्‍त प्रजाजनों से थोड़ा-थोड़ा द्रव्‍य लेकर उसका संचय करे। जो धन की राज्‍य की सुरक्षा करने से बचे, उसी को धर्म और उपभोग के कार्य में खर्च करना चाहिये। शास्‍त्रज्ञ और मनस्‍वी राजा को कोषागार के संचित धन से द्रव्‍य लेकर भी खर्च नहीं करना चाहिये। थोड़ा-सा भी धन मिलता हो तो उसका तिरस्‍कार न करे। शत्रु शक्तिहीन हो तो भी उसकी अवहेलना न करे। बुद्धि से अपने स्‍परुप और अवस्‍था को समझे तथा बुद्धिहीनों पर कभी विश्‍वास न करें। धारणाशक्ति, चतुरता, संयम, बुद्धि, शरीर, धैर्य, शौर्य तथा देश-काल की परिस्थिति से असावधान न रहना-ये आठ गुण थोड़े या अधिक धन को बढ़ाने के मुख्‍य साधन हैं अर्थात् धनरुपी अग्नि को प्रज्‍वलित करने के लिये ईधन हैं। थोड़ी-सी भी आग यदि घीसे सिंच जाय तो बढ़कर बहुत बड़ी हो जाती है। एक ही छोटे-से बीज को बो देने पर उससे सहस्‍त्रों बीज पैदा हो जाते हैं। इसी प्रकार महान् आय-व्‍यय के विषय में विचार करके थोड़े-से भी धन का अनादर न करे। शत्रु बालक, जवान अथवा बूढ़ा ही क्‍यों न हो, सदा सावधान न रहने वाले मनुष्‍य का नाश कर डालता है। दूसरा कोई धनसम्‍पन्‍न शत्रु अनुकुल समय का सहयोग पाकर राजा की जड़ उखाड़ सकता है। इसीलिये जो समय को जानता है, वही समस्‍त राजाओं में श्रेष्‍ठ हैं।[3]

शत्रु के साथ संधि या विग्रह करना

द्वेष रखने वाला शत्रु दुर्बल हो या बलवान्, राजा की कीर्ति नष्‍ट कर देता है, उसके धर्म में बाधा पहुँचाता है तथा धनोपार्जन में उसकी बढ़ी हुई शक्ति का विनाश कर डालता है; इसलिये मन को वश में रखने वाला राजा शत्रु ओर से लापरवाह न रहे।[3] हानि, लाभ, रक्षा और संग्रह को जानकर तथा सदा परस्‍पर सम्‍बन्धित ऐश्‍वर्य और भोग को भी भलीभाँति समझकर बुद्धिमान राजा को शत्रु के साथ संधि या विग्रह करना चाहिये; इस विषय पर विचार करने के लिये बुद्धिमानों का सहारा लेना चाहिये। प्रतिभाशाली बुद्धि बलवान् को भी पछाड़ देती है। बुद्धि के द्वारा नष्‍ट होते हुए बल की भी रक्षा होती हैं। बढ़ता हुआ शत्रु भी बुद्धि के द्वारा परास्‍त होकर कष्‍ट उठाने लगता है। बुद्धि से सोचकर पीछे जो कर्म किया जाता हैं,वह सर्वोत्तम होता है। जिसने सब प्रकार के दोषों का त्‍याग कर दिया हैं, वह धीर राजा यदि किसी वस्‍तु की कामना करे तो वह थोड़ा-सा बल लगाने पर भी अपनी सम्‍पूर्ण कामनाओं को प्राप्‍त कर लेता है। जो आवश्‍यक वस्‍तुओं से सम्‍पन्‍न होने पर भी अपने लिये कुछ चाहता है अर्थात् दूसरों से अपनी इच्‍छा पूरी कराने की आश रखता हैं, वह लोभी और अंहकारी नरेश अपने श्रेय का छोटा-सा पात्र भी नहीं भर सकता।[4]-

राजा द्वारा प्रजा से कर वसुल करना

इसलिये राजा को चाहिये कि वह सारी प्रजा पर अनुग्रह करते हुए ही उससे कर (धन) वसूल करे। वह दीर्घकाल तक प्रजा को सताकर उस पर बिजली के समान गिरकर अपना प्रभाव न दिखावे। विद्या, तप तथा प्रचुर धन-ये सब उद्योग से प्राप्‍त हो सकते हैं। वह उद्योग प्राणियों में बुद्धि के अधीन होकर रहता है; अत: उद्योग को ही समस्‍त कार्यों की सिद्धि का पर्याप्‍त समझे। अत: जहाँ जितेन्‍द्रीयों में बुद्धिमान एवं मनस्‍वी महर्षि निवास करते हैं,[5] जिसमें इन्द्रियों के अधिष्‍ठातृ देवता के रुप में इन्‍द्र, विष्‍णु एवं सरस्‍वती का निवास हैं तथा जिसके भीतर सदा सम्‍पूर्ण प्राणियों के जीवन-निर्वाह का आधार हैं, विद्वान पुरुष को चाहिये कि उस मानव-देह की अवहेलना न करे।[4]

राजा का लोभी मनुष्य से सावधान रहना

राजा लोभी मनुष्‍य को सदा ही कुछ देकर दबाये रखे; क्‍योंकि लोभी पुरुष दूसरे के धन से कभी तृप्‍त नहीं होता। सत्‍कर्मो के फलस्‍वरुप सुख का उपभोग करने के लिये तो सभी लालायित रहते है; परंतु जो लोभी धनहीन हैं, वह धर्म और काम दोनों को त्‍याग देता हैं। लोभी मनुष्‍य दूसरों के धन, भोग-सामग्री, स्‍त्री-पुत्र और समृद्धि सबको प्राप्‍त करना चाहता है। लोभी में सब प्रकार के दोष प्रकट होते हैं; अत: राजा उसे अपने यहाँ किसी पद पर स्‍थान न दे। बुद्धिमान् राजा नीच मनुष्‍य को देखते ही अपने यहाँ से दूर हटा दे और यदि उसका वश चले तो वह शत्रुओं के सारे उद्योगों तथा कार्यों का विध्‍वंस कर डाले।[4]

राजा का बुद्धिमान मंत्री को ही पद के लिए नियुक्त करना

पाण्‍डुनन्‍दन! धर्मात्‍मा पुरुषों में जो विशेष रुप से सम्‍पूर्ण विषयों का ज्ञाता हो्, उसी को मन्‍त्री बनावे और उसकी सुरक्षा का विशेष प्रबन्‍ध करें। प्रजा का विश्‍वास-पात्र और कुलीन राजा नरेशों को वश में करने में समर्थ होता है।। राजा के जो शास्‍त्रोक्‍त धर्म हैं, उन्‍हें संक्षेप से मैंने यहाँ बताया है। तुम अपनी बुद्धि से विचार करके उन्‍हें हदय में धारण करो।जो उन्‍हें गुरु से सीखकर हदय में धारण करता और आचरणमें लाता है, वही राजा अपने राज्‍य की रक्षा करने में समर्थ होता है। जिन्‍हें अन्‍याय से उपार्जित, हठ से प्राप्‍त तथा दैव के विधान के अनुसार उपलब्‍ध हुआ सुख विधि के अनुरुप प्राप्‍त हुआ-सा दिखायी देता हैं, राजधर्म को न जानने वाले उस राजा की गति नहीं है तथा उसका परम उत्तम राज्‍य सुख चिरस्‍थायी नहीं होता। उक्‍त राजधर्म के अनुसार संधि-विग्रह आदि गुणों के प्रयोग में सतत सावधान रहने वाला नरेश धनसम्‍पन्‍न, बुद्धि और शील के द्वारा सम्‍मानित, गुणवान् तथा युद्ध में जिनका पराक्रम देखा गया है, उन वीर शत्रुओं को भी कूट कौशलपूर्वक नष्‍ट कर सकता है। राजा नाना प्रकार की कार्यपद्धतियों द्वारा शत्रु-विजय के बहुत-से उपाय ढूंढ निकाले। अयोग्‍य उपाय से काम लेने का विचार न करे, जो निर्दोष व्‍यक्तियों के भी दोष देखता है, वह मनुष्‍य विशिष्‍ट सम्‍पति, महान् यश और प्रचुर धन नहीं पा सकता। सुहदों में से जो मित्र प्रेमपूर्वक साथ-साथ एक कार्य में प्रवृत होते हों और साथ-ही-साथ उससे निवृत होते हों, उन्‍हें अच्‍छी तरह जानकर उन दोनों में से जो मित्र लौटकर मित्र का गुरुतर भार वहन कर सके, उसी को विद्वान पुरुष अत्‍यन्‍त स्‍नेही मित्र मानकर दूसरों के सामने उसका उदाहरण दें। नरेश्‍वर! मेरे बताये हुए इन राजधर्मो का आचरण करो और प्रजा के पालन में मन लगाओ; इससे तुम सुखपूर्वक पुण्‍यफल प्राप्‍त करोगे; क्‍योंकि सम्‍पूर्ण जगत् का मूल धर्म है।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 120 श्लोक 1-11
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 120 श्लोक 12-25
  3. 3.0 3.1 3.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 120 श्लोक 26-40
  4. 4.0 4.1 4.2 4.3 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 120 श्लोक 41-56
  5. इमावेव गौतमभरद्वाजौ’ इत्‍यादि श्रुति के अनुसार सम्‍पूर्ण ज्ञानेन्द्रियों का गौतम, भरद्वाज, वसिष्‍ठ और विश्वामित्र आदि महर्षियों ने सम्‍बन्‍ध सूचित होता है।

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राजधर्मानुशासन पर्व
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उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव | केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान | केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन | आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट | लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार | रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना | ऋत्विजों के लक्षण | यज्ञ और दक्षिणा का महत्व | तप की श्रेष्ठता | राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव | मन्त्री के लक्षणों का वर्णन | कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य | श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद | मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता | कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान | सभासद आदि के लक्षण | गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश | इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व | राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन | दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण | राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन | प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश | राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय | प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार | राजा के कर्तव्य का वर्णन | उतथ्य का मान्धाता को उपदेश | राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता | उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व | राजा के धर्म का वर्णन | राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश | वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन | वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव | विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन | राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा | शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन | इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन | समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन | शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति | सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन | भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण | विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन | शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना | दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश | कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन | कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना | विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना | गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति | माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व | सत्य-असत्य का विवेचन | धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन | सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय | मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा | तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य | सरिताओं और समुद्र का संवाद | दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ | राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण | सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा | कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना | राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन | सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन | सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना | राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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