राजधर्म का वर्णन

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 145 में राजधर्म का वर्णन हुआ है।[1]

शिव द्वारा राजधर्म का वर्णन

उमा ने कहा- देवदेव! त्रिलोचन! वृषभध्वज! भगवन! महेश्वर! आपकी कृपा से मैंने पूर्वोक्त सब विषयों को सुना है। सुनकर आपके उस परम उत्तम उपदेश को मैंने बुद्धि के द्वारा ग्रहण किया है। इस समय मनुष्यों के विषय में एक संदेह ऐसा रह गया है, जिसका समाधान आवश्यक है। मनुष्यों में यह जो राजा दिखायी देता है, उसके भी प्राण, सिर और धड़ दूसरे मनुष्यों के समान ही हैं, फिर किस कर्म के फल से यह सब में प्रधान पद पाने का अधिकारी हुआ है? यह राजा नाना प्रकार के मनुष्यों को दण्ड देता और उन्हें डाँटता-फटकारता है। यह मृत्यु के पश्चात कैसे पुण्यात्माओं के लोक पाता है? मानद! अतः मैं राजा के आचार-व्यवहार का वर्णन सुनना चाहती हूँ।

श्री महेश्वर ने कहा- शुभानने! अब मैं तुम्हें राजधर्म की बात बताऊँगा, क्योंकि जगत का सारा शुभाशुभ आचार-व्यवहारराजा के ही अधीन है। देवि! राज्य को बहुत बड़ी तपस्या का फल माना गया है। प्राचीन काल की बात है, सर्वत्र अराजकता फैली हुई थी। प्रजा पर महान संकट आ गया। प्रजा की यह संकटापन्न अवस्था देख ब्रह्मा जी ने मनु को राजसिंहासन पर बिठाया।। तभी से राजाओं का शुभाशुभ बर्ताव देखने में आया है।

वरारोहे! राजा का जो आचरण जगत के लिये हितकर और लाभदायक है, वह मुझसे सुनो। जिस बर्ताव के कारण वह मृत्यु के पश्चात स्वर्ग का भागी हो सकता है, वही बता रहा हूँ। उसमें जैसा पराक्रम और जैसा यश होना चाहिये, वह भी सुनो। पिता की ओर से प्राप्त हुए अथवा और पहले से चले आते हुए अथवा स्वयं ही पराक्रम द्वारा प्राप्त करके वश में किये हुए राज्य को राजा धर्म का आश्रय ले विधिपूर्वक उपभोग में लाये। पहले अपने आपको ही विनय से सम्पन्न करे। तत्पश्चात सेवकों और प्रजाओं को विनय की शिक्षा दे। यही विनय का क्रम है।

शुभेक्षणे! राजा को ही आदर्श मानकर उसके आचरण सीखने की इच्छा से प्रजावर्ग के लोग स्वयं भी विनय से सम्पन्न होते हैं। जो राजा स्वयं विनय सीखने के पहले प्रजा को ही विनय सिखाता है, वह अपने दोषों पर दृष्टि न डालने के कारण उपहास का पात्र होता है। विद्या के अभ्यास और वृद्ध पुरुषों के संग से अपने आपको विनयशील बनाये। विद्या धर्म ओर अर्थरूप फल देने वाली है। जो उस विद्या के ज्ञाता हैं, उन्हीं को वृद्ध कहते हैं।

देवि! इसके बाद राजा को अपनी इन्द्रियों पर विजय पाना चाहिये- यह बात बतायी गयी। इन्द्रियों को काबू में रखने से जो महान दोष प्राप्त होता है, वह राजा को नीचे गिरा देता है। पाँचों इन्द्रियों को अपने अधीन करके उनके पाँचों विषयों को सुखा डाले। ज्ञान और विनय के द्वारा आवश्यक प्रयत्न करके काम-क्रोध आदि छः दोषों को त्याग दे तथा शास्त्रीय दृष्टि का सहारा लेकर न्यायपरायण हो सेवकों का संग्रह करे। जो सदाचार, शास्त्रज्ञान और उत्तम कुल से सम्पन्न हों, जिनकी सचाई और ईमानदारी की परीक्षा ले ली गयी हो, जो उस परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हों, जिनके साथ बहुत से जासूस हों और जो जितेन्द्रिय हों- ऐसे अमात्यों को यथायोग्य अपने कर्मों में उनकी योग्यता के अनुसार नियुक्त करे।[1]

बुद्धिमान मन्त्री, बहुजनप्रिय राष्ट्र, दुर्धर्ष श्रेष्ठ नगर या दुर्ग, कठिन अवसरों पर काम देने वाला कोष, सामनीति के द्वारा राजा में अनुराग रखने वाली सेना, दुविधे में न पड़ा हुआ मित्र और विनय के तत्त्व को जानने वाला राज्य का स्वामी- ये सात प्रकृतियाँ कही गयी हैं। प्रजा की रक्षा के लिये ही यह सारा प्रबन्ध किया गया है। रक्षा की हेतुभूत जो ये प्रकृतियाँ है, इनके सहयोग से राजा लोकहित का सम्पादन करे।

राजा द्वारा प्रजा की रक्षा का वर्णन

राजा को प्रजा की रक्षा के लिये ही अपनी रक्षा अभीष्ट होती है, अतः वह सदा सावधान होकर आत्मरक्षा करे। मन को वश में रखने वाला राजा भोजन- आच्छादन- स्नान, बाहर निकलना तथा सदा स्त्रियों के समुदाय से संयोग रखना- इन सबसे अपनी रक्षा करे। वह मन को सदा अपने अधीन रखकर स्वजनों से, दूसरों से, शस्त्र से, विष से तथा स्त्री-पुत्रों से भी निरन्तर अपनी रक्षा करे। आत्मवान राजा प्रजा की रक्षा के लिये सभी स्थानों से अपनी रक्षा करे और सदा प्रजा के हित में संलग्न रहे। प्रजा का कार्य ही राजा का कार्य है, प्रजा का सुख ही उसका सुख है, प्रजा का प्रिय ही उसका प्रिय है तथा प्रजा के हित में ही उसका अपना हित होता है। प्रजा के हित के लिये ही उसका सर्वस्व है, अपने लिये कुछ भी नहीं है।

प्रकृतियों की रक्षा के लिये राग-द्वेष छोड़कर किसी विवाद के निर्णय के लिये पहले दोनों पक्षों की यथार्थ बातें सुन ले। फिर अपनी बुद्धि के द्वारा स्वयं उस मामले पर तब तक विचार करे, जब तक कि उसे यथार्थता का सुस्पष्ट ज्ञान न हो जाय। तत्त्व को जानने वाले अनेक श्रेष्ठ पुरुषों के साथ बैठकर परामर्श करने के बाद अपराधीन, अपराध, देश, काल, न्याय और अन्याय का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करके फिर शास्त्र के अनुसार राजा अपराधी मनुष्यों को दण्ड दे। पक्षपात छोड़कर ऐसा करने वाला राजा धर्म का भागी होता है। प्रत्यक्ष देखकर, माननीय पुरुषों के उपदेश सुनकर अथवा युक्तियुक्त अनुमान करके राजा को सदा ही अपने देश के शुभाशुभ वृत्तान्त को जानना चाहिये। गुप्तचरों द्वारा और कार्य की प्रवृत्ति से देश के शुभाशुभ वृत्तान्त को जानकर उस पर विचार करे।

तत्पश्चात अशुभ का तत्काल निवारण करे और अपने लिये शुभ का सेवन करे। देवि! राजा निन्दनीय मनुष्यों की निन्दा ही करे, पूजनीय पुरुषों का पूजन करे और दण्डनीय अपराधियों को दण्ड दे। इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। पाँच व्यक्तियों की अपेक्षा रखकर अर्थात पाँच मन्त्रियों के साथ बैठकर सदा ही राज-कार्य के विषय में गुप्त मन्त्रणा करे। जो बुद्धिमान, कुलीन, सदाचारी और शास्त्रज्ञान सम्पन्न हों, उन्हीं के साथ राजा को सदा मन्त्रणा करनी चाहिये। जो इच्छानुसार राज्य कार्य से विमुख हो जाते हों, ऐसे लोगों के साथ मन्त्रणा करने का विचार भी मन में नहीं लाना चाहिये। राजा को राष्ट्र के हित का ध्यान रखकर सत्य-धर्म का पालन करना और कराना चाहिये। दुर्ग आदि तथा मनुष्यों की देखभाल के लिये राजा सम्पूर्ण उद्योग सदा स्वयं ही करे। वह देश की उन्नति करने वाले भृत्यों को सावधानी के साथ कार्य में नियुक्त करे और देश को हानि पहुँचाने वाले समस्त अप्रियजनों का परित्याग कर दे। जो राजा के आश्रित होकर जीविका चला रहे हों, ऐसे लोगों की देखभाल भी राजा प्रतिदिन स्वयं ही करे।[2]

वह प्रसन्नमुख और सबका परम प्रिय होकर लोगों को जीविका दे, उनके साथ उत्तम बर्ताव करे। किसी से पापपूर्ण, रूखा और तीखा वचन बोलना उसके लिये कदापि उचित नहीं। सत्पुरुषों के बीच में वह कभी ऐसी बात न कहे, जो विश्वास के योग्य न हो। प्रत्येक मनुष्य के गुणों और दोषों को उसे अच्छी तरह समझना चाहिये। अपनी चेष्टा को धैर्यपूर्वक छिपाये रखे। क्षुद्र बुद्धि का प्रदर्शन न करे अथवा मन में क्षुद्र विचार न लाये। दूसरे की चेष्टा को अच्छी तरह समझकर संसार में उनके साथ सम्पर्क स्थापित करे। राजा को चाहिये कि वह अपने भय से, दूसरों के भय से, पारस्परिक भय से तथा अमानुष भयों से अपनी प्रजा को सुरक्षित रखे। जो लोभी, कठोर तथा डाका डालने वाले मनुष्य हों, उन्हें जहाँ-तहाँ से पकड़वाकर राजा कैद में डाल दे।

राजा का सत्कार करने का वर्णन

राजकुमारों को जन्म से ही विनयशील बनावे। उनमें से जो भी अपने अनुरूप गुणों से युक्त हो, उसे युवराजपद पर नियुक्त करे। शोभने! एक क्षण के लिये भी बिना राजा का राज्य नहीं रहना चाहिये। अतः अपने पीछे राजा होने के लिये एक युवराज को नियत करना सदा ही आवश्यक है। कुलीन पुरुषों, वैद्यों, श्रोत्रिय ब्राह्मणों, तपस्वी मुनियों तथा वृत्तियुक्त दूसरे पुरुषों का भी राजा विशेष सत्कार करे। अपने लिये, राज्य के हित के लिये तथा कोष-संग्रह के लिये ऐसा करना आवश्यक है। नीतिज्ञ पुरुष अपने कोष को चार भागों में विभक्त करे- धर्म के लिये, पोष्य वर्ग के पोषण के लिये, अपने लिये तथा देश-कालवश आने वाली आपत्ति के लिये। राजा को चाहिये कि अपने देश में जो अनाथ, रोगी और वृद्ध हों, उनका स्वयं पोषण करे। संधि, विग्रह तथा अन्य नीतियों का बुद्धिपूर्वक भली-भाँति विचार करके प्रयोग करे। राजा सबका प्रिय होकर सदा अपने मण्डल (देश के भिन्न-भिन्न भाग) में विचरे। शुभ कार्यों में भी वह अकेला कुछ न करे। अपने और दूसरों से संकट की सम्भावना का विचार करके द्वेष या लोभवश धार्मिक पुरुषों के साथ सम्बन्ध का त्याग न करे।

प्रजा का धर्म है रक्षणीयता और क्षत्रिय राजा का धर्म है रक्षा, अतः दुष्ट राजाओं से पीड़ित हुई प्रजा की सर्वत्र रक्षा करे। सेना को संकटों से बचावे, नीति से अथवा धन खर्च करके भी प्रायः युद्ध को टाले। सैनिकों तथा प्रजाजनों के प्राणों की रक्षा के उद्देष्य से ही ऐसा करना चाहिये। अनिवार्य कारण उपस्थित होने पर ही युद्ध करना चाहिये, अपने या पराये दोष से नहीं। उत्तम युद्ध में प्राण-विसर्जन करना वीर योद्धा के लिये धर्म की प्राप्ति कराने वाला होता है। किसी बलवान शत्रु के आक्रमण करने पर राजा उस आपत्ति से बचने का उपाय करे। प्रजा के हित के लिये समस्त विरोधियों को अनुनय-विनय के द्वारा अनुकूल बना ले। देवि! यह संक्षेप से राजधर्म बताया गया है। इस प्रकार बतार्व करने वाला राजा प्रजा को दण्ड देता और फटकारता हुआ भी जल से लिप्त न होने वाले कमलदल के समान पाप से अछूता ही रहता है। इस बर्ताव से रहने वाले राजा की जब मृत्यु होती है, तब वह स्वर्गलोक में जाकर देवताओं के साथ आनन्द भोगता है।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-1
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-1
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-3

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विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना | दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम | गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य | व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व | गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना | गोदान करने वाले नरेशों के नाम | कपिला गौओं की उत्पत्ति | कपिला गौओं की महिमा का वर्णन | वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना | गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति | विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति | गौओं तथा गोदान की महिमा | व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन | व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन | व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी और गौओं का संवाद | गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना | ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना | भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना | सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा | पार्वती का देवताओं को शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | 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आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों 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मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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