विरह-पदावली -सूरदास
(239) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) अरे, वन में रहने वाले पक्षी (पपीहे)! ठहर, ठहर; (क्योंकि) तेरे बोलने से रात्रि बढ़ जाती है और (उसे) कानों से सुनते-सुनते (मेरी) निद्रा भी नष्ट हो जाती है। क्या करूँ, कोई (मेरा रोकना) मानता ही नहीं। मैं तो चन्दन और चन्द्रमा द्वारा पहिले ही काटी (बेधी) गयी हूँ। यदि स्वामी अब नहीं मिलेंगे तो काशी-करवट लूँगी (काशी जाकर देहत्याग करूँगी)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
पद संख्या | पद का नाम |