रसिकमुरारि भगवान श्यामसुन्दर के रूप-रस और लीला-माधुर्य के पूरे रसिक थे। वे दिव्य युगल-स्वरूप के उपासक थे। श्यामा-श्याम की निकुंज लीला का चिन्तन ही उनका परम धन था। नन्दनन्दन और रासेश्वरी रसमयी श्रीवृषभानुनन्दिनी का स्मरण ही उनके जीवन का आधार था। संत सेवा और गुरुभक्ति में उनकी दृढ़ निष्ठा थी। वे सरल और सरस स्वभाव के रसिक प्राणी थे।
गुरु का बुलावा
रसिकमुरारि जी के गुरु श्यामानन्द की जागीर एक दुष्ट राजा ने छीन ली। श्यामानन्द ने उनको पत्र लिखा कि तुम जिस दशा में हो, उसी में शीघ्र ही चले आओ। उस समय वे भोजन कर रहे थे। बिना हाथ-मुख धोये ही वे चल पड़े। गुरु-आज्ञा की मर्यादा ही ऐसी थी। गुरु का निवास सत्रह कोस की दूरी पर था। श्यामानन्द जी ने उन्हें उस दशा में देखकर बड़ा आश्चर्य प्रकट किया और उनकी कार्यव्यतत्परता और आज्ञाकारिता की बड़ी सराहना की। रसिकमुरारि ने गुरु की जागीर लौटाने के लिये राजा के पास जाने का निश्चय किया, किंतु उनके शिष्यों ने उन्हें राजा की दुष्टता से अवगत कराया और जाने से रोका। उन्होंने किसी की बात नहीं मानी।
मतवाले हाथी से सामना
राजा ने रसिकमुरारि के आने की वात सुनकर एक मतवाला दुष्ट हाथी उनके ऊपर छोड़ने का इरादा किया और सभासदों से कहा कि- "यदि उनमें कुछ शक्ति होगी तो हाथी उन्हें छोड़ देगा और इस तरह उनकी सिद्धि का भी पता चल जायगा।" पर यह सब कुछ तो बहाना था, वह तो उन्हें जान से मारकर जागीर हड़प लेना चाहता था। गजराज झूमता हुआ उनके पथ पर मदोन्मत्त-सा विचर रहा था। श्याया-श्याम के अनन्य सेवक रसिकमुरारि की पालकी राजसभा की ओर आ रही थी। वे निर्भयतापूर्वक प्रभु का स्मरण करते पालकी में सवार होकर चले आ रहे थे। जीव चराचर में भगवान नन्दनन्दन के दर्शन करने वाले रसिक भक्त ने देखा कि कहारों ने पालकी रख दी और वे भाग खड़े हुए। सामने मदमस्त गजराज झूमता-झामता पहुँच गया। रसिकमुरारि को अपनी प्राण रक्षा की चिन्ता नहीं थी। उन्हें तो गजराज को किसी तरह इस भयानक पापकर्म से मुक्तकर भगवान की भक्ति का माधुर्य चखाना था।
रसिकमुरारि ने कृपाभरी दृष्टि से गजराज को देखा। प्रेमभरी मुस्कान बिखेरकर कहा कि- "भैया! तुम चेतन हो, तुम्हारे रोम-रोम में भगवत्-सत्ता व्याप्त है, तुम हाथी का तमोगुण छोड़ दो। इस पापग्राह से छुटकारा पाने के लिये भगवान का स्मरण करो। भव-बन्धन से मुक्ति मिल जायगी’। भक्त की रसमयी वाणी के प्रभाव से गजराज का मद उतर गया। उसका हृदय भक्तिभाव से आह्लादित हो उठा। हाथी ने नतमस्तक होकर रसिकमुरारि की चरण-वन्दना की। ऐसा लगता था कि तमोगुण ने सत्वगुण की प्रभुता स्वीकार कर ली। वह अधीर हो उठा, नयनों से अश्रु की धारा बहने लगी। रसिकमुरारि ने उसे श्रीकृष्ण-नाम से अभिमंत्रित कर कहा- "श्रीकृष्ण का नाम माधुर्य का अनन्त सागर है। एक कणिकामात्र के संस्पर्श से करोड़ों जन्मों के पाप मिट जाते हैं। जीव उनके रूप-रस में अवगाहनकर धन्य और कृतार्थ हो जाता है।" उन्होंने इस शिष्य हाथी का नाम ‘गोपालदास’ रखा। भक्त मुरारि के दर्शन से राजा की दुष्टता का नाश हो गया। उसने उनके चरण पकड़ लिये, क्षमा मांगी। श्यामानन्द की जागीर लौटा दी। रसिकमुरारि की गुरुभक्ति धन्य हो गयी।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज