योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
इक्कीसवाँ अध्याय
संजय का दौत्य कर्म
पर इन सबमें धृतराष्ट्र अत्यन्त भयभीत था। उसका अन्तःकरण कहता था युधिष्ठिर सच्चा है, पर वह राजपाट का लोभ और बेटों के भय से लड़ाई को रोक रखने की शक्ति नहीं रखता था। उसे दिन-रात चैन न थी, उसे पहले ही आभास हो गया था कि इस लड़ाई में न तो बेटे बचेंगे और न भतीजे। सारा कुरुकुल नष्ट हो जाएगा और राजपाट, जिसके लिए ये लड़ रहे हैं, वह दूसरों की भोग्यभूमि होगा! निदान बड़े सोच-विचार के पश्चात उसने निश्चय किया कि लड़ाई से पहले युधिष्ठिर की धर्मप्रवृत्ति को अपील करें। उसने एक विद्वान संजय नामक ब्राह्मण को दूत बनाकर युधिष्ठिर के दरबार में भेजा ताकि वह युधिष्ठिर को इस भयानक युद्ध से रोकने का उपदेश करे। अतएव महाराज धृतराष्ट्र का भेजा हुआ दूत युधिष्ठिर के शिविर में आया। युधिष्ठिर ने संजय का बड़ा आदर-सत्कार किया। जब युधिष्ठिर ने उससे आने का हेतु पूछा तो संजय बड़ी नम्रता से युधिष्ठिर को लड़ाई की बुराइयाँ सुनाने लगा और कहा कि केवल राजपाट के लिए लड़ना और अपने सम्बन्धियों का वध करना महापाप है। तुम्हें उचित है कि इस विचार को त्याग दो और यदि जान भी जाये, पर अपने भाइयों और सम्बन्धियों पर आक्रमण न करो। प्रथम तो इन दोनों पक्ष वालों का एक-दूसरे पर विजय पाना बड़ा कठिन है, फिर यदि तुम जीत भी गये तो इससे क्या सुख मिल सकता है। इसलिए ऐसे युद्ध से अपनी आत्मा को कलंकित मत करो और सन्धि कर लो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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