योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 94

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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इक्कीसवाँ अध्याय
संजय का दौत्य कर्म


महाराज द्रुपद ने जो दूत पाण्डवों की ओर से धृतराष्ट्र के पास सन्धि के लिए भेजा था उसे कुछ सफलता प्राप्त नहीं हुई और दोनों ओर से युद्ध की तैयारियाँ इस तीव्रता से होती रहीं जिससे सबको विश्वास हो गया कि आर्यावर्त की सारी वीरता और श्रेष्ठता का इसी लड़ाई में अन्त हो जाएगा। दोनों ओर के शूरवीर मत्त हाथी के समान झूमते-फिरते थे। शंख, घड़ियाल, घंटे आदि की ध्वनि से आकाश-पाताल गूँज रहे थे। घोड़ों की हिनहिनाहट से कान में पड़ी बात भी सुनाई नहीं देती थी। धन-दौलत के लालच से भाई-भाई के खून का प्यासा हो रहा था। चाचा भतीजों के प्राण का ग्राहक बन गया। भीष्म वचनबद्ध होकर उन भतीजों के विरुद्ध लड़ने पर उतारू हुए, जिनके लिए उनके चित्त में गाढ़ा प्रेम था और जिन्हें वह उचित मार्ग पर समझते थे। द्रोण विचारते थे कि इस लड़ाई में उनके सारे शिष्य आपस में लड़ मरने पर उतारू हुए हैं। यद्यपि वे दुर्योधन की सेना में थे पर अन्तःकरण से वे युधिष्ठिर के सहायक थे। वे जानते थे कि दुर्योधन का पक्ष अन्याय और अधर्म पर है और युधिष्ठिर सच्चाई पर है।

पर इन सबमें धृतराष्ट्र अत्यन्त भयभीत था। उसका अन्तःकरण कहता था युधिष्ठिर सच्चा है, पर वह राजपाट का लोभ और बेटों के भय से लड़ाई को रोक रखने की शक्ति नहीं रखता था। उसे दिन-रात चैन न थी, उसे पहले ही आभास हो गया था कि इस लड़ाई में न तो बेटे बचेंगे और न भतीजे। सारा कुरुकुल नष्ट हो जाएगा और राजपाट, जिसके लिए ये लड़ रहे हैं, वह दूसरों की भोग्यभूमि होगा!

निदान बड़े सोच-विचार के पश्चात उसने निश्चय किया कि लड़ाई से पहले युधिष्ठिर की धर्मप्रवृत्ति को अपील करें। उसने एक विद्वान संजय नामक ब्राह्मण को दूत बनाकर युधिष्ठिर के दरबार में भेजा ताकि वह युधिष्ठिर को इस भयानक युद्ध से रोकने का उपदेश करे।

अतएव महाराज धृतराष्ट्र का भेजा हुआ दूत युधिष्ठिर के शिविर में आया।

युधिष्ठिर ने संजय का बड़ा आदर-सत्कार किया। जब युधिष्ठिर ने उससे आने का हेतु पूछा तो संजय बड़ी नम्रता से युधिष्ठिर को लड़ाई की बुराइयाँ सुनाने लगा और कहा कि केवल राजपाट के लिए लड़ना और अपने सम्बन्धियों का वध करना महापाप है। तुम्हें उचित है कि इस विचार को त्याग दो और यदि जान भी जाये, पर अपने भाइयों और सम्बन्धियों पर आक्रमण न करो। प्रथम तो इन दोनों पक्ष वालों का एक-दूसरे पर विजय पाना बड़ा कठिन है, फिर यदि तुम जीत भी गये तो इससे क्या सुख मिल सकता है। इसलिए ऐसे युद्ध से अपनी आत्मा को कलंकित मत करो और सन्धि कर लो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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