योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
सोलहवाँ अध्याय
कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन
महाराज ने जब सुना कि तीन स्नातक ब्राह्मण मेरे द्वार पर आये हैं तो वह शीघ्र अपने महलों से नीचे उतरा और सम्मानपूर्वक उनके सामने आ खड़ा हुआ। इन्हें देखकर वह चकित हो गया। यद्यपि इनका वेष स्नातक ब्राह्मणों का था, पर इनके प्रत्येक अंग-प्रत्यंग से क्षात्रत्व झलक रहा था। वह भी चतुर था, उसने अपना भाव प्रकट होने नहीं दिया और पूजा करने के लिए झट आगे बढ़ा। उसके आगे बढ़ते ही दूसरी ओर से उत्तर मिला कि हम आपकी पूजा को स्वीकार नहीं कर सकते। अब तो राजा का सन्देह और भी पक्का हो गया उसने उनसे पूछा कि वे कौन हैं, और क्यों इस वेष में उसके सामने आकर भी उसकी पूजा ग्रहण नहीं करते? कृष्ण बोले, "हे राजन! प्रत्येक मनुष्य को अधिकार है कि वह स्नातकों के धर्म का अनुगामी बने। हम यद्यपि इस समय फूलों का हार पहने हैं, परन्तु हम इस समय स्नातक धर्म में दीक्षित हैं। तथापि हम तेरे शत्रु हैं और शत्रुता के भाव से ही तेरे सामने आये हैं। इसीलिए न तो हम मुख्य द्वार से तेरे नगर से आये और न हमने तेरी पूजा स्वीकार की, अपितु शत्रु के समान पहाड़ी से नगर में उतरे हैं।" जरासंध यह उत्तर सुनकर बोला, "हे महानुभाव! जहाँ तक मुझे याद आता है मैंने कभी तुम्हारी कुछ हानि नहीं की है, फिर तू मेरा शत्रु क्यों बना? ऐसा न हो कि तू किसी भ्रम में पड़ा हो। मैं तो सदा धर्म के अनुकूल ही काम करता हूँ।" |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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