योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 83

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

Prev.png

सोलहवाँ अध्याय
कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन


युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर अर्जुन और भीम कृष्ण के साथ अपनी राजधानी से निकले। हम पूर्व लिख चुके हैं कि कृष्ण का अभिप्राय था कि जरासंध को मल्लयुद्ध करने के लिए तैयार किया जाय। इसके लिए उन्हें यह आवश्यक लगा कि वे तीनों जरासंध के यहाँ जावें। परन्तु यदि वे अपने यथार्थ वेश में गये तो उन्हें राजधानी के भीतर जाने की आज्ञा भी नहीं मिलेगी, इसलिए इन तीनों ने क्षत्रिय का रूप छोड़ स्नातक का वेष धारण किया और गिरिराज की नगरी की ओर चले। जब नगर के निकट पहुँचे तो सोचने लगे कि शत्रु के घर मुख्य मार्ग से जाना और फिर उस पर वार करना धर्म-मर्यादा के विपरीत है। इसलिए यह निश्चय किया, कि किसी चोर द्वार से अन्दर घुसना चाहिए। गिरिराज की नगरी के एक ओर एक ऊँची पहाड़ी खड़ी थी जो रक्षा के लिए दीवार का काम देती थी। ये तीनों उस पहाड़ी पर चढ़े और उस पर से होकर शहर में जा घुसे। स्नातक ब्राह्मण के वेश में फूलों की माला गले में पहन, देह में सुगन्धित तेल मलकर राजद्वार पर जा पहुँचे और महाराज जरासंध से भेंट करने की इच्छा प्रकट की।

महाराज ने जब सुना कि तीन स्नातक ब्राह्मण मेरे द्वार पर आये हैं तो वह शीघ्र अपने महलों से नीचे उतरा और सम्मानपूर्वक उनके सामने आ खड़ा हुआ। इन्हें देखकर वह चकित हो गया। यद्यपि इनका वेष स्नातक ब्राह्मणों का था, पर इनके प्रत्येक अंग-प्रत्यंग से क्षात्रत्व झलक रहा था। वह भी चतुर था, उसने अपना भाव प्रकट होने नहीं दिया और पूजा करने के लिए झट आगे बढ़ा। उसके आगे बढ़ते ही दूसरी ओर से उत्तर मिला कि हम आपकी पूजा को स्वीकार नहीं कर सकते। अब तो राजा का सन्देह और भी पक्का हो गया उसने उनसे पूछा कि वे कौन हैं, और क्यों इस वेष में उसके सामने आकर भी उसकी पूजा ग्रहण नहीं करते?

कृष्ण बोले, "हे राजन! प्रत्येक मनुष्य को अधिकार है कि वह स्नातकों के धर्म का अनुगामी बने। हम यद्यपि इस समय फूलों का हार पहने हैं, परन्तु हम इस समय स्नातक धर्म में दीक्षित हैं। तथापि हम तेरे शत्रु हैं और शत्रुता के भाव से ही तेरे सामने आये हैं। इसीलिए न तो हम मुख्य द्वार से तेरे नगर से आये और न हमने तेरी पूजा स्वीकार की, अपितु शत्रु के समान पहाड़ी से नगर में उतरे हैं।"

जरासंध यह उत्तर सुनकर बोला, "हे महानुभाव! जहाँ तक मुझे याद आता है मैंने कभी तुम्हारी कुछ हानि नहीं की है, फिर तू मेरा शत्रु क्यों बना? ऐसा न हो कि तू किसी भ्रम में पड़ा हो। मैं तो सदा धर्म के अनुकूल ही काम करता हूँ।"

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः