योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
बारहवाँ अध्याय
द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट
पाँचाल के राजा का नाम द्रुपद था जो राजकुमारी द्रौपदी का पिता था। दुर्योधन का पिता धृतराष्ट्र अन्धा होने से गद्दी पर नहीं बैठा। पाण्डु राज्य करता था। पाण्डु के मरने पर धृतराष्ट्र का बड़ा पुत्र दुर्योधन गद्दी का दावेदार हुआ और इसकी सिद्धि के लिए वह पाण्डु पुत्रों की जान के पीछे पड़ा। यह विग्रह इतना बढ़ा कि धृतराष्ट्र ने पाण्डवों से कहा, वे कुछ काल के लिए विराट नगर में जाकर रहें। पाण्डवों ने जब इस बात को स्वीकार कर लिया तो दुर्योधन ने अपने एक मित्र विरोचन को इसलिए आगे भेज दिया, ताकि वह युधिष्ठिर तथा अन्य पाण्डवों के रहने के लिए लाख के एक घर का निर्माण करा दे जिसमें जब पाण्डव जाकर रहें तो किसी भी दिन या रात को उसमें आग लगा दी जाय और इस प्रकार सब-के-सब अंदर जल मरें। पर दुर्योधन की इस करतूत की खबर विदुर को मिल गई। उन्होंने अपने भतीजे युधिष्ठिर इत्यादि को इससे सूचित कर दिया और इसलिए सावधान होकर पाँचों पाण्डव आग लगने के पहले ही वहाँ से भाग निकले और ब्राह्मण का रूप धर छिपे-छिपे वन में विचरण करने लगे। इन्हीं दिनों में पांचाल की राजपुत्री द्रौपदी का स्वयंवर रचा गया था। इस उत्सव में आर्यावर्त के सब क्षत्रिय राजा-महाराजा उपस्थित थे। श्रीकृष्ण भी अपने भाई बलराम के साथ आए हुए थे। एक ओर ब्राह्मण के वेष में पाण्डवगण भी बैठे हुए थे। इस स्वयंवर में विजय का नियम यह रखा गया था कि तेल की एक कढ़ाई में एक चक्र पर मछली का चित्र बना था। वह मछली घूमती थी। इसकी परछाई तेल में देखकर जो अपने बाण से मछली के नेत्र में निशाना लगाएगा वही द्रौपदी का पति होगा। ऐसा जान पड़ता है कि उस समय धनुष विद्या में कर्ण और अर्जुन बड़े निपुण थे। इनकी समता कोई नहीं कर सकता था। अब उपस्थित राजाओं में से कोई भी इस नियम का पालन नहीं कर सका, तो कर्ण उठा, जिस पर द्रौपदी ने कहा कि यह सारथी का पुत्र है, इससे मैं विवाह नहीं कर सकती। यह सुनकर कर्ण अपना-सा मुँह लेकर बैठ गया। अंत मैं ब्राह्मणों की पंक्ति में से अर्जुन उठा और उठते ही इस फुरती से बाण मारा कि वह सीधा निशाने पर जा लगा। बस फिर क्या था, द्रौपदी ने आगे बढ़कर फूलों का हार उसके गले में पहना दिया। यह देखकर सारी सभा में कोलाहल मच गया। सारे राजा-महाराजा कहने लगे कि स्वयंवर में ब्राह्मण राजकन्या को नहीं वर सकता। इस संघर्ष में अर्जुन और भीम ने जो हाथ दिखाया, जिसमें श्रीकृष्ण ने उन्हें पहचान लिया और बीच में पड़कर यह निर्णय करा दिया कि इस ब्राह्मण ने नियमानुसार स्वयंवर जीता है, इसलिए न्याय और नियम के अनुसार द्रौपदी इसकी हो चुकी है। श्रीकृष्ण का प्रभाव इतना प्रबल था कि इस फैसले पर सब-के-सब चुप रहे और वहाँ से चल दिये। अर्जुन अपने भाइयों सहित द्रौपदी को लेकर अपनी माता के पास गए। फिर कृष्ण भी वहाँ पहुँचे। युधिष्ठिर की माता कुन्ती, कृष्ण की बुआ थी। एक-दूसरे को पहचानकर तथा कुशल-क्षेम पूछने पर पाण्डु पुत्र कृष्ण से पूछने लगे, "आपने हमको किस तरह पहचाना?" इसके उत्तर में कृष्ण ने कहा कि अग्नि छिपाये नहीं छिप सकती। आपने जो विचित्र कार्य आज द्रुपद की सभा में किया है, उसी ने आप सबका परिचय दे दिया। पाण्डवों को छोड़कर और किसमें सामर्थ्य है जो ऐसा खेल खेलता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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