योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 69

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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आठवाँ अध्याय
उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा


जब कंस के वध की सूचना उसकी रानियों तक पहुँची तब उन सबने विलाप करना आरम्भ किया। उधर उग्रसेन और कंस की माता भी रो-रोकर कोलाहल मचाने लगी। राजमहल के प्रत्येक स्त्री-पुरुष के चेहरे पर भय और शोक दिखाई पड़ रहा था। कंस के इस दुःखान्त परिणाम को देखकर लोग उसकी अनीतियों की बात तो भूल गए और उसके रक्त से भरे मृत शरीर को देख लगे रोने तथा विलाप करने। घृणा का बदला लेने का भाव तो जाता रहा; उसकी जगह उनमें दया और दुख का संचार होने लगा। कृष्ण को भी इस शोक में सम्मिलित होना पड़ा। इसके बाद कृष्ण और बलराम वसुदेव और देवकी की ओर बढ़े और अपना माथा उनके पैरों पर रख दिया। एक ओर तो उग्रसेन और उसकी पत्नी का अपने पुत्रों की मृत्यु पर विलाप और दूसरी ओर वसुदेव तथा देवकी का अपने बिछड़े हुए पुत्रों से मिलाप। ये दोनों ऐसे दृश्य थे जो एक ही सभामण्डप में लोगों के हृदय में विपरीत भाव उत्पन्न कर रहे थे। इस सारे दृश्य में लोगों को परमात्मा के अटल न्याय की रेखा दिखाई देती थी। जो दुख और सन्ताप कंस तथा सुमाली के मृत शरीर के देखने से होता था वह तत्काल वसुदेव और देवकी के विहल हृदय के नीचे दब जाता था।

कंस की वह कार्यवाही लोगों के सामने फिर घूमने लगी जो उसने वसुदेव और देवकी के बच्चों का वध करने के लिए की थी। कृष्ण के माता और पिता के आनन्द में सारी सभा आ मिली। यादव वंश के सब छोटे-बड़े एक-एक करके कृष्ण के पैरों पर आ पड़े और सबने उनसे राज्य-तिलक ग्रहण करने की प्रार्थना की। सारी सभा इन शब्दों से गूँज उठी कि कृष्ण मथुरा की गद्दी पर बैठें और राज्य करें। युवा कृष्ण के लिए यह कड़ी परीक्षा का समय था। एक ओर राजपाट और सारे ऐश्वर्य उनके सामने हाथ जोड़े खड़े थे। सारे भाई-बन्धु और प्रजा उनसे आग्रह कर रही थी कि कृष्ण राजपाट अंगीकार करें। दूसरी ओर उनके हृदय में न्याय और धर्म के उच्च भाव एकत्र हो रहे थे। उनके भीतर से यह आवाज आई कि मुझे इस गद्दी का अधिकार नहीं लेना। मैंने कंस को इसलिए नहीं मारा कि उसका राजपाट स्वयं भोगूँ। यदि मैंने इस समय गद्दी स्वीकार कर ली तो संसार को यह कहने का अवसर मिलेगा कि राज्य के लालच में आकर मैंने कंस का वध किया, पर मेरे हृदय में इसका कभी विचार भी नहीं हुआ। इस विचार के आते ही कृष्ण ने ठान लिया कि नहीं, मैं गद्दी नही लूँगा। गद्दी उग्रसेन की है जिसे दुष्ट कंस ने अन्याय और बल से छीना था। उग्रसेन ने भी बहुत अनुरोध किया कि मैं तो इससे प्रसन्न हूँ कि आप गद्दी पर बैठें। पर कृष्ण ने एक न सुनी और सबके सामने उग्रसेन को फिर गद्दी पर बिठा दिया। जो लोग कंस के अत्याचारों से डरकर देश छोड़कर चले गये थे उन सबको बुला लिया गया।

सारांश यह कि सब प्रबन्ध ठीक कर कृष्ण ने अपने भाई बलराम सहित विद्या के निमित्त काशी[1] जाने का निश्चय किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हम नहीं कह सकते कि कृष्ण के समय वर्तमान काशी या बनारस को वही गौरव प्राप्त था जो उसे पौराणिक समय में मिला। प्राचीन ग्रन्थों में काशी का वर्णन आया है पर हमारे पास उसका कोई प्रमाण नहीं कि उससे तात्पर्य इसी ‘शहर बनारस’ का है। पुराणों के विरचित होने के समय तो काशी अपनी पूर्ण उन्नति की चोटी पर पहुँचा हुआ था। इसलिए संभव है कि उन पुराणों के रचयिता पण्डितों ने अपने जमे हुए विचार के अनुसार यह लिख दिया हो कि श्रीकृष्ण भी हो न हो विद्योपार्जन के लिए काशी ही गए। पर यथार्थ तो यह जान पड़ता है कि वह विद्या के निमित्त काशी नहीं गए।

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योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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