योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 61

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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पाँचवाँ अध्याय
गोकुल से वृन्दावन गमन


इसी प्रकार गोकुल में रहते जब कुछ काल बीत चुका तो गोपों ने जातीय स्वभाव अथवा आवश्यकतावश अपना निवास-स्थान बदलना चाहा और गोकुल से कुछ दूरी पर एक वन पसन्द किया, जिसका नाम वृन्दावन रखा[1] गया। गोपों ने गोकुल में मिट्टी और ईट के घरद्वार तो बनाए नहीं थे, जो उन्हें छोड़ने में कठिनता होती। विचार करते ही सारी आबादी अपना डेरा डंडा उठा, अपने छकड़ों और पशुओं को हाँक वृन्दावन की ओर चल दिए और वहाँ जाकर गोकुल की तरह एक बस्ती बना ली।

ऐसा जान पड़ता है कि वृन्दावन को चरागाह तथा घास-पात की बहुतायत के विचार से पसन्द किया था। स्थानों का यह परिवर्तन प्रत्येक प्रकार से कृष्ण के अनुकूल पड़ा। अब उनकी वंशी की सुरीली गूँज से सारा वृन्दावन गूँजने लगा। आस-पास के वन-वाटिका का कोई स्थान कृष्ण और उनके साथियों से छिपा न रहा। जहाँ लहलहाती हरियाली देखते वहीं गायों को हाँक ले जाते। गौवें हरी घास से पेट भरतीं, आनन्दपूर्वक स्वच्छ वायु में अठखेलियाँ करतीं, उधर से लड़के किसी छाया में बैठ गाने बजाने का आनन्द लूटते। सन्ध्या को अपने पशुओं को हाँकते हुए अपने ग्राम में आ जाते। भोजन से छुट्टी पाने पर सारा गाँव, क्या बाल क्या वृद्ध, सभी एकत्र होते और कृष्ण की वंशी सुनते। युवा और युवतियाँ तो कृष्ण की वंशी पर ऐसे लट्टू थे कि जब वह वंशी बजाते तो इनके दल के दल एक वृत बनाकर उसके गिर्द नाचते, चक्कर लगाते और बाकी सब तमाशा देखते।

जंगल में जब कभी कोई जंगली पशु मिल जाता तो सबके सब मिलकर उनका पीछा करते या तो उनको मार डालते या भाग जाते। ऐसी घटनाओं का पुराणों में प्रायः वर्णन किया है। हम उनमें से कुछ को यहाँ उद्धत करते हैं-

(1) एक दिन का वर्णन है कि कृष्ण और बलराम अपने साथियों सहित गौवें चरा रहे थे। साथियों में से किसी लड़के ने कहा कि वन में एक जगह खजूर[2] का कुंज है, जिसमें बड़ी और मीठी खजूरें[3] लगी हुई हैं। पर उस कुंज के बीच में एक भंयकर पशु है जिसके भय से वहाँ कोई नहीं जाता। यह सुन कृष्ण और बलराम वहाँ जाने को तैयार हो गए और वहाँ ईंट और पत्थर चलाने लगे। ईंट और पत्थर की मार से वह पशु चौंका और भयभीत हो बाहर निकला।[4] जब वह सामने आया तो लड़कों ने उस पर ढेले बरसाना आरम्भ किया। यहाँ तक कि वह बिचारा चोटों से मर गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जंगलों में घूमने वाली ये जातियाँ यदि स्थिर होकर एक स्थान में बस जायें तो फिर वे अस्थिर जातियाँ न कहलायें, दूसरी जातियों के समान शहरों व देहातों की आबादियों में मिल जाएँ और न इस कदर पशु रख सकें जितने कि वे इस अवस्था में किसी खर्च के बगैर रख सकती हैं। ये जातियाँ इसी में प्रसन्न रहती हैं कि किसी स्थान पर सर्वदा के लिए न रहें। अपनी इच्छा से समय-समय पर घर बदला करती हैं। जब किसी एक जगह से उनका जी भर जाता है या वहाँ पर उनके पशुओं के लिए पूरी हरियाली नहीं रहती, तो वे उसी समय अपना डेरा उठा किसी दूसरी जगह झोंपड़ी डाल देती हैं। हरिवंशपुराण में इस स्थान व गृहों के बदलने का कारण यह लिखा है कि गोकुल में भेड़ियों का आतंक इतना बढ़ गया कि गोप लोगों ने अपने जान व माल को बचाने के लिए इस जगह को छोड़ देना आवश्यक समझा।
  2. वृक्ष-विशेष
  3. फल
  4. पुराणों में इस पशु का नाम धनुके है, और शकल गदहे की लिखी है।

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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