योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
तीसरा अध्याय
श्रीकृष्णचन्द्र का जन्म
सत्य है, पापी अपने को बहुत बलवान और कठोर हृदय समझता है, पर वास्तव में उसका अभ्यन्तर पापों से खोखला होकर बलहीन हो जाता है। तनिक भय या उसकी छाया उसे भयभीत तथा शान्तिरहित कर देती है। उसके सारे पाप और सारी अनीतियाँ सदेह उसके सामने आ खड़ी होती हैं और नाना प्रकार से उसको डराने लगती हैं। वे आत्माएँ, जिन्होंने उससे किसी प्रकार की पीड़ा पाई है, भयानक रूप धारण कर उसके नेत्रों के सामने आ विराजती हैं और सोते-जागते उसे भय दिलाती हैं। उसकी अवस्था उस चोर के समान हो जाती है जो अपनी परछाई से डर उठता है या तनिक-सा खटका पाकर काँपने लगता है। आगे चलकर पुराण लेखक लिखता है, "कंस के चित्त में यह भाव उठते ही उसे विश्वास हो गया कि अब मेरा अन्त आ पहुँचा।" मृत्यु से बचने के लिए उसने यह उपाय सोचा कि जैसे भी हो सके देवकी का वध कर देना चाहिए। यह विचार आते ही उसने रथ को रोक दिया। खडग ले देवकी की ओर लपका और चाहता था कि एक ही हाथ में उसका सिर धड़ से जुदा कर दे, पर वसुदेव ने विनयपूर्वक हाथ जोड़कर उसे भगिनी वध के पाप से बचाया। कंस क्रोधान्ध होकर स्त्री पर वार करने को उठा था, पर जब चारों ओर से हाहाकार मच गया और उसकी निन्दा होने लगी तो उसे बड़ी ग्लानि हुई। उसने वसुदेव से यह प्रतिज्ञा करा ली कि वह देवकी की होने वाली संतान को उसके हवाले कर दे। इसके बाद ही उसने स्त्री-वध का विचार त्यागा और देवकी सहित वसुदेव को अपने घर जाने की आज्ञा दी।[1] इस विषय में सब पुराण एक मत हैं कि वसुदेव ने निज प्रतिज्ञा-पालन में अपने छः पुत्र कंस के हवाले कर दिये और कंस भी ऐसा निर्दयी था कि उसने इन छहों को एक-एक कर मरवा डाला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस विषय में पुराणों में बड़ा मदभेद है। कोई पुराण कहता है कि यह आकाशवाणी हुई कि इस लड़की की संतान के द्वारा तेरा वध होगा। अन्य लिखते हैं कि यह ध्वनि हुई कि आठवीं संतान से तेरा विनाश होगा। कोई इस अगमवाणी को नारद जी के सिर मढ़ते हैं। पुराणों में जहाँ कहीं लड़ाई-झगड़े का काम लेना होता है वहाँ नारद जी की सहायता ढूँढ़ी जाती है। साधारण बोलचाल में लड़ाई कराने वाले व इधर की उधर पहुँचाने वाले को नारद मुनि कहते हैं। न जाने नारद जी को यह प्रमाण-पत्र किस कारण मिला, क्योंकि नारद एक विख्यात शास्त्रकार तथा महर्षि का नाम है। पुराण के लेखक का शायद यह तात्पर्य है कि किसी दुराचारी ने राजा को यह कुमन्त्रणा दी थी जिसमें कोई इसका वंशज राज्याधिकार का दावा न करे। अथवा इनके राजकीय विषयों में विरोध न करे।
संबंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज