योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
1. भूमिका
यों तो मुख से सब कुछ कह दें और उच्च स्वर से मानव-पूजक की निन्दा करें, परन्तु यथार्थ में कोई भी इस दोष से बचा हुआ प्रतीत नही होता। इस सृष्टि की सारी जातियाँ एक-न-एक प्रकार से मानव-पूजन हैं। संसार की कोई विद्या या शिक्षण-पद्धति ऐसी नहीं जो इस विषय की शिक्षा न देती हो। इसकी पुष्टि में उन जातियों के सम्मुख बहुत-से दृष्टान्त उपस्थित किये जाते हैं, जिन्हें इस बात का गर्व है कि हम तो एक परमेश्वर के उपासक हैं। अंग्रेजी भाषा का प्रसिद्ध लेखक मि. कार्लाइल जिसने लालित्ययुक्त शब्दजटित हार पिरोकर उनमें अपने पवित्र विचारों के अमूल्य नग जड़े हैं, जिसने शब्द रूपी मोतियों को इस प्रकार लालित्य रूपी संबंध में संगठित किया है कि यह पृथ्वी की तह में से खोदे हुए हीरे और लालों से अधिक मूल्यवान और प्रकाशमान प्रकट होते हैं, अपने उस सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘हीरो वर्शिप’ में लिखता है कि- ‘‘संसार के महापुरुष वास्तव में उस महान अग्नि की एक चिंगारी के सदृश हैं जिसके प्रकाश से यह संसार प्रकाशमान है, और जिसके ताप से खनिज, उद्भिज तथा मनुष्य, पशु आदि समस्त संसार स्थित है। जिसकी दाह मानों दया की वर्षा है और जिसकी ठंडक मानों हृदय में उमंग, उत्तेजना और आकर्षण उत्पन्न करने वाली है।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यद्यपि इनका सत्कार पूजन के दरजे से कम नहीं होता
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