योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 22

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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1. भूमिका


संसार में कौन-सी ऐसी जाति है जिसने वीरों की देवता के तुल्य वंदना नही की और जिन्हें सृष्टि में एक साधारण जीवधारी विचार कर भी सृष्टिकर्ता का उच्चासन नहीं प्रदान किया। मनुष्य में यह बात स्वाभाविक है कि वह अपने से श्रेष्ठ शक्ति वा कुशलता की ओर झुकता है और जब वह किसी पुरुष-विशेष को अपने से बढ़कर योग्य देखता है और उसकी योग्यता या कुशलता के यथोचित विवेचन करने में अपने को असमर्थ देखता है तथा अपने अंतः करण को उसकी महान शक्ति से आकर्षित पाता है, तो वह स्वतः उस पुरुष-विशेष को ऐसा आदिपुरुष मानने लगता है, जो अपने गुण और लक्षण में एक है और जिसका न कोई उत्पन्न करने वाला है और न संहार ही कर सकता है। अन्तर केवल इतना ही है कि शिक्षित और धार्मिक जातियाँ [1] इन पुरुषों में और उनके उत्पन्न करने वाले जगदीश्वर में भेद की सीमा को मिटाने नहीं देतीं, परन्तु जो जातियाँ अनपढ़ होने के कारण अज्ञानरूपी अंधकार में फँसी हैं, उन्हें इसका ज्ञान या भेदाभेद का विचार दृष्टिगोचर रखना किसी प्रकार संभव नहीं।

यों तो मुख से सब कुछ कह दें और उच्च स्वर से मानव-पूजक की निन्दा करें, परन्तु यथार्थ में कोई भी इस दोष से बचा हुआ प्रतीत नही होता। इस सृष्टि की सारी जातियाँ एक-न-एक प्रकार से मानव-पूजन हैं। संसार की कोई विद्या या शिक्षण-पद्धति ऐसी नहीं जो इस विषय की शिक्षा न देती हो। इसकी पुष्टि में उन जातियों के सम्मुख बहुत-से दृष्टान्त उपस्थित किये जाते हैं, जिन्हें इस बात का गर्व है कि हम तो एक परमेश्वर के उपासक हैं।

अंग्रेजी भाषा का प्रसिद्ध लेखक मि. कार्लाइल जिसने लालित्ययुक्त शब्दजटित हार पिरोकर उनमें अपने पवित्र विचारों के अमूल्य नग जड़े हैं, जिसने शब्द रूपी मोतियों को इस प्रकार लालित्य रूपी संबंध में संगठित किया है कि यह पृथ्वी की तह में से खोदे हुए हीरे और लालों से अधिक मूल्यवान और प्रकाशमान प्रकट होते हैं, अपने उस सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ‘हीरो वर्शिप’ में लिखता है कि- ‘‘संसार के महापुरुष वास्तव में उस महान अग्नि की एक चिंगारी के सदृश हैं जिसके प्रकाश से यह संसार प्रकाशमान है, और जिसके ताप से खनिज, उद्भिज तथा मनुष्य, पशु आदि समस्त संसार स्थित है। जिसकी दाह मानों दया की वर्षा है और जिसकी ठंडक मानों हृदय में उमंग, उत्तेजना और आकर्षण उत्पन्न करने वाली है।’’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यद्यपि इनका सत्कार पूजन के दरजे से कम नहीं होता

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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