योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा
क्या आजकल हमारी जाति का और हमारा धर्म आराम का धर्म नहीं है? हममें से कितने लोग हैं जो अपने कर्त्तव्य और अपने धर्म के हेतु सब तरह के झंझट और दुःख उठाने के लिए तैयार हैं? क्या सैकड़ों-हजारों, नहीं लाखों हिन्दू हर साल पैसों, रुपयों, औरतों, ओहदों इत्यादि नाचीज वस्तुओं के लिए अपना धर्म बेच नहीं देते? क्या हममें से कोई भी ईमानदारी से यह कह सकता है कि मैं अपने धर्म की खातिर हर तरह का दुःख उठाने को तैयार हूँ? हाँ, अफसोस, इस देश में न धर्म रहा और न धार्मिक लोग। केवल जबानी जमा-खर्च रह गया हमारा धर्म, हमारी देशभक्ति, हमारा स्वजातीय प्रेम, हमारा उपकारी जीवन ख़ाली लिफाफे की तरह है। उसके अन्दर न उद्देश्य के नोट है, न सच्ची इच्छाओं की चिट्ठियाँ। संभव है कोई महान पुरुष अपने जीवनचरित से हमें धर्म का सच्चा लक्ष्य बतला दे और इस भूली हुई जाति का हाथ पकड़कर उसे सीधे रास्ते पर डाल दे। |
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