योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 136

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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पैंतीसवाँ अध्याय
कृष्ण महाराज की शिक्षा


यह शब्द[1] उन अंग्रेजी पढ़े-लिखे हिन्दुओं की गढ़ंत है जो अंग्रेजी शिक्षा पाकर भी पौराणिक हिन्दू मत के उस भाग को मानते हैं जिसको हिन्दुओं की बोलचाल में वैष्णव धर्म कहा जाता है। शायद सारे संस्कृत साहित्य में कोई शब्द ऐसा न मिलेगा जो ईसाई मत, मुहम्मदी मत और बौद्ध धर्म की तरह श्रीकृष्ण के नाम के साथ किसी मत या धर्म का संबंध सूचित करता हो। अंग्रेजी जानने वाले कृष्ण भक्तों ने संस्कृत साहित्य की इस कमी को पूरा करने की कोशिश में कृष्ण के नाम पर एक मत की नींव डाली है जिसको वह कृष्णाइज़्म कहकर पुकारते हैं। परन्तु संस्कृत साहित्य के साधारण अन्वेषण से तो यही ज्ञात होता है कि श्रीकृष्ण ने किसी मत की नींव डालने का साहस नहीं किया और न उन्होंने किसी ऐसे धर्म की शिक्षा दी जो उचित रीति से उनके ही नाम से जगत में प्रसिद्ध हो। हजरत ईसा, हजरत मुहम्मद और महात्मा बुद्ध इन तीनों महापुरुषों ने एक नवीन धर्म की नींव डाली और इसलिए उनके मत या धर्म उनके नाम से प्रसिद्ध हो रहे हैं। यद्यपि अर्वाचीन समय के बहुतेरे हिन्दू सम्प्रदाय भी इसी प्रकार किसी-किसी महापुरुष के नाम से प्रसिद्ध हैं, परन्तु प्राचीन संस्कृत साहित्य में इस तरह का कोई प्रमाण नहीं है। कृष्ण के समय के साहित्य में तो इस प्रकार का नाम-निशान ही नहीं है। प्राचीन हिन्दूमत में यही तो एक बड़ी विलक्षणता है कि उसकी नींव किसी मनुष्य की शिक्षा-दीक्षा के आधार पर नहीं डाली गई है।

यदि सच पूछो तो प्राचीन हिन्दू साहित्य संसार के धार्मिक तत्त्व की आत्मा है। यह साहित्य इस प्रकार के अमूल्य धार्मिक तत्त्वों से परिपूर्ण है। इसके समान उच्च विचार दुनिया के और किसी साहित्य में दिखाई नहीं देते। इस पर भी तुर्रा यह कि इन विचारों को प्रकट करने वाले महापुरुषों ने अपने नाम का कोई भी चिह्न नहीं छोड़ा जिससे आप यह निश्चित कर सकें कि यह विचार और यह शिक्षा अमुक महापुरुष की थी। हमारे महापुरुषों में से किसी ने नवीन शिक्षा देने की चेष्टा नहीं की किन्तु सबके सब अपने आपको वेदोक्त ब्रह्मविद्या का अनुयायी बतलाते रहे। किसी ने नाम मात्र के लिए भी ऐसा साहस नहीं किया कि यह विचार मेरे हैं और मैं इनको फैलाने के लिए संसार में आया हूँ। मेरे पहले यह विचार किसी के ध्यान में नहीं आये थे या मुझे विशेष रूप से यह ज्ञान स्वयं प्राप्त हुआ। कभी-किसी ने कोई नवीन मत प्रचारित करने का विचार नहीं किया। उपनिषदों और ब्राह्मणों का समस्त क्रम हमारे इस कथन का साक्षी है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कृष्णाइज़्म

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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