योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 130

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

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चौंतीसवां अध्याय
क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे?


भूमिका में हमने इस प्रश्न का निषेधात्मक उत्तर देकर यह प्रण किया था कि कृष्ण के जीवनचरित को लिखने के पश्चात इस विषय पर कुछ अवश्य लिखेंगे। अतः कृष्ण के जीवनचरित का वर्णन समाप्त कर अब हम अपने प्रण को पूरा करते हैं।

क्या परमेश्वर मनुष्य-शरीर धारण करता है?


परमेश्वर को मानने वाले सब आस्तिक लोग उसको सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, अजन्मा, अमर, अनादि, अनन्त आदि गुणों से सम्बोधित करते हैं। पुनः यह बात किस तरह ठीक हो सकती है कि उस सर्वशक्तिमान परमेश्वर को अपने सेवकों के रक्षण हेतु नर-देह धारण करने की आवश्यकता पड़े? मनुष्य-देह में आने से तो वह स्वयं बंधन में पड़ जाएगा और तब वह सर्वव्यापी नहीं रह सकता।

क्या ईश्वर का अवतार मानने वाले हमको यह बतला सकते हैं कि जिस समय श्रीकृष्ण महाराज के शरीर में परमात्मा ने अवतार लिया था उस समय सारे संसार का शासन कौन करता था? जब श्रीकृष्ण कौरवों से लड़ते थे, शिशुपाल से झगड़ते थे, जरासंध के भय से भागते फिरते थे उस समय संसार का प्रबंध किसके हाथ में था और किस तरह चल रहा था? तात्पर्य यह है कि बुद्धि इस बात को कदापि स्वीकार नहीं कर सकती कि इस सृष्टि का स्वामी और बनाने वाला परमात्मा कभी नर-देह में आता है। उसका तो यही गुण है कि वह संसार के सारे प्रपंचों से परे है। यह शरीर तो उसके बनाये हुए हैं। मनुष्य जिसके कार्य-कौशल को स्वयं नहीं समझ सकता, उसके विषय में कह देता है कि वह परमेश्वर ही इस बलहीन और बंधन-युक्त मनुष्य-देह में आता है। ताकि वह हमें अपने उदाहरणों से बतला सके कि किस प्रकार से जीवन व्यतीत करना चाहिए। उस परमात्मा के विषय में ऐसा सोचना वास्तव में उसके ईश्वरत्व को अस्वीकार करना है। मनुष्य को ईश्वर का पद देना या ईश्वर को गिराकर मनुष्य के पद पर पहुँचा देना बड़ा भारी अपराध है। हमें खेद है कि हमारी जाति के लोग इस बुनियाद पर इतना भरोसा रखते हैं और अवतारों को माने बिना धर्म-शिक्षा का होना भी विचार में नहीं ला सकते। यद्यपि यह विषय बहुत आवश्यक और मनोरंजक भी है, इस पर वादानुवाद करने को भी जी चाहता है, परन्तु लेख के बढ़ जाने का विचार हमें रोकता है। दूसरे इस विषय पर वादानुवाद करना इस पुस्तक के उद्देश्यों से भी बाहर है। अस्तु, केवल इतना कहकर हम संतोष करते हैं कि वेदों और उपनिषदों में परमात्मा को अज[1], अमर, अविनाशी और अकाय इत्यादि कहा है। यदि हम यह मान लें कि परमात्मा स्वयं भी देह धारण करता है तो उपुर्यक्त सभी गुण व्यर्थ हो जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अजन्मा

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योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

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