योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
इकतीसवाँ अध्याय
अन्तिम दृश्य व समाप्ति
दुर्योधन भाग गया और एक वन में जाकर छिप रहा था। परन्तु मृत्यु कब किसे अवसर देती है। पाण्डव उसका पीछा करते हुए वन में पहुँचे और उन्होंने दुर्योधन के स्थान का पता लगा लिया। युधिष्ठिर ने जोर से पुकारकर उससे कहा, "हे दुर्योधन! स्त्रियों की तरह छिपकर अपने वंश पर क्यों धब्बा लगाता है। बाहर आ, युद्ध कर। यदि तू हममें से एक को भी लड़ाई में मार डाले तो हम सब राजपाट तुझे सौंपकर जंगल को चले जाएँगे।" युधिष्ठिर की इन बातों पर दुर्योधन के चित्त में फिर आशा की चिंगारी चमकी और उसने कहा, "मैं राज्य[1] के वास्ते तो अब लड़ना नहीं चाहता, परन्तु बदला लेने की आग मेरे हृदय में भड़क रही है। मैं अपने साथियों की मृत्यु का बदला लेने के लिए तुमसे लड़ने को उद्यत हूँ। राज्य तो मैंने तुझको दे दिया। जा अब इस वीरान जंगल पर तू राज्य कर, ऐसा राज्य दुर्योधन के काम का नहीं।" युधिष्ठिर ने फिर कहा, "हे दुर्योधन! मुझे दान की तरह तुझसे राज्य लेना स्वीकार नहीं है। अब मैदान में आकर युद्ध कर। यदि तू हममें से किसी एक को भी मार ले तो राज्य तेरा हुआ, और हम सब भाई पुनः वन में चले जाएँगे।" दुर्योधन ने कहा, "अच्छा! मुझे युद्ध स्वीकार है, परन्तु मैं गदा से युद्ध करूँगा। गदा से युद्ध करने की जिसमें सामर्थ्य हो वह मेरे सामने आ जाये। हे युधिष्ठिर, तेरे और अर्जुन जैसे दुर्बल लोगों से मैं क्या लडूँ? बेशक भीम मेरी टक्कर का है। मैं उससे लड़ता हूँ।" अन्ततः भीम और दुर्योधन मस्त हाथियों की तरह एक-दूसरे के साथ टकराने लगे। अन्त में भीम ने अवसर पाते ही दुर्योधन की जाँघ पर गदा का ऐसा प्रहार किया जिससे वह चकनाचूर होकर गिर पड़ा। उसके गिरते ही भीमसेन ने उसके सिर पर लात मारी। युधिष्ठिर और कृष्ण ने उसको ऐसा करने से रोका क्योंकि आर्य पुरुषों में परास्त हुए बैरी का अपमान करना बहुत बुरा समझा जाता है। दुर्योधन की इस हार से महाभारत युद्ध का अन्त हो गया। पाण्डव जीत करके अपने डेरों में वापस आये और अपनी विजय की खुशी में नाचरंग करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यदि यह विचार लड़ाई से पहले दुर्योधन के चित्त में पैदा होता तो शायद महाभारत का विनाशकारी युद्ध न हुआ होता।
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