योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय पृ. 103

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय

Prev.png

चौबीसवाँ अध्याय
विदुर और कृष्ण का वार्तालाप


इतिहास लेखक[1] लिखता है कि रात का भोजन करने के पश्चात जब विदुर और कृष्ण इकट्ठे हुए तो विदुर ने कृष्ण से कहा, "हे कृष्ण! आप व्यर्थ में यहाँ आये। मुझे पूरा विश्वास है कि आपके उपदेश से कुछ काम नहीं निकलेगा। दुर्योधन ने एक बड़ी सेना इकट्ठी कर ली है। जो क्षत्रिय आपके शत्रु हैं, वे सब उसके सहायक हो रहे हैं। उसे अपने सेनाबल पर इतना भरोसा है कि वह अभी से अपने को विजयी समझने लगा है। धन और राजपाट की इच्छा ने दुर्योधन की आँखों पर पट्टी बाँध रखी है। उसके सभासद भी उसी के समान कामी और क्रोधी हो गये हैं। मुझे दुःख है कि आपने व्यर्थ ही इन दुष्टों के पास आने का कष्ट उठाया। पाण्डवों का सहायक समझकर ये सब आपके लहू के प्यासे हो रहे हैं। मुझे भय है कि वे आपको कुछ हानि न पहुँचाएँ। इसलिए मेरी सम्मति है कि आप इस काम को त्याग दें और इनकी सभा में न जायें, क्योंकि मुझे आपके कार्य की सफलता की तनिक भी आशा नहीं है। जिस सभा में अच्छी या बुरी बात का अन्तर न विचारा जाए वहाँ बातचीत ही नहीं करनी चाहिए। जिस प्रकार चाण्डालों के सामने ब्राह्मणों के वचन का सत्कार नहीं होता उसी तरह दुर्योधन की सभा में आपके कथन या आशय का सम्मान नहीं होगा। अतः ऐसे व्यर्थ काम से दूर रहना ही अच्छा है।"

इसके उत्तर में कृष्ण बोले, "हे विदुर! मैं इस उपदेश के लिए आपका बहुत ही अनुगृहीत हूँ। धर्मात्मा और भद्रपुरुष ऐसी ही सलाह दिया करते हैं। परन्तु मुझे खेद है कि मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। मैं दृढ़-संकल्प करके आया हूँ कि कम-से-कम एक बार अवश्य इस बात का यत्न करूँ कि ये लोग वृथा सृष्टि के प्राण नष्ट न करें।"

"इस समय मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ कि देश को और विशेषतः क्षत्रिय वंश को इस विनाश से बचाने के लिए एक बार फिर कोशिश करूँ। यदि इसमें मैं सफलीभूत हुआ तो मैं समझूँगा कि मैंने महान धर्म का काम किया। नहीं तो कम-से-कम मुझे इतना हार्दिक संतोष तो अवश्य रहेगा कि मैंने अपनी ओर से यत्न करने में कुछ कमी नहीं की। प्रत्येक सच्चे मित्र का धर्म है कि अपने मित्र को बुरे काम से बचाये। कौरव और पाण्डव मेरे संबंधी हैं, दोनों के साथ मुझे प्रेम है। इस समय मैं देखता हूँ कि दोनों दल एक-दूसरे को नष्ट करने के लिए तत्पर हैं। इसलिए मेरा धर्म है कि इस उत्पात को मिटाने का यत्न करूँ। चाहे कोई माने या न माने।" सारांश यह है कि बहुत देर तक विदुर और कृष्ण में इस तरह की बातचीत होती रही, किन्तु श्रीकृष्ण अपने संकल्प में दृढ़ रहे।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारतकार व्यास

संबंधित लेख

योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
ग्रन्थकार लाला लाजपतराय 1
प्रस्तावना 17
भूमिका 22
2. श्रीकृष्णचन्द्र का वंश 50
3. श्रीकृष्ण का जन्म 53
4. बाल्यावस्था : गोकुल ग्राम 57
5. गोकुल से वृन्दावन गमन 61
6. रासलीला का रहस्य 63
7. कृष्ण और बलराम का मथुरा आगमन और कंस-वध 67
8. उग्रसेन का राज्यारोहण और कृष्ण की शिक्षा 69
9. मथुरा पर मगध देश के राजा का जरासंध का आक्रमण 71
10. कृष्ण का विवाह 72
11. श्रीकृष्ण के अन्य युद्ध 73
12. द्रौपदी का स्वयंवर और श्रीकृष्ण की पांडुपुत्रों से भेंट 74
13. कृष्ण की बहन सुभद्रा के साथ अर्जुन का विवाह 75
14. खांडवप्रस्थ के वन में अर्जुन और श्रीकृष्ण 77
15. राजसूय यज्ञ 79
16. कृष्ण, अर्जुन और भीम का जरासंध की राजधानी में आगमन 83
17. राजसूय यज्ञ का आरम्भ : महाभारत की भूमिका 86
18. कृष्ण-पाण्डव मिलन 89
19. महाराज विराट के यहाँ पाण्डवों के सहायकों की सभा 90
20. दुर्योधन और अर्जुन का द्वारिका-गमन 93
21. संजय का दौत्य कर्म 94
22. कृष्णचन्द्र का दौत्य कर्म 98
23. कृष्ण का हस्तिनापुर आगमन 101
24. विदुर और कृष्ण का वार्तालाप 103
25. कृष्ण के दूतत्व का अन्त 109
26. कृष्ण-कर्ण संवाद 111
27. महाभारत का युद्ध 112
28. भीष्म की पराजय 115
29. महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य : आचार्य द्रोण का सेनापतित्व 118
30. महाभारत के युद्ध का तीसरा दृश्य : कर्ण और अर्जुन का युद्ध 122
31. अन्तिम दृश्य व समाप्ति 123
32. युधिष्ठिर का राज्याभिषेक 126
33. महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग 128
34. क्या कृष्ण परमेश्वर के अवतार थे? 130
35. कृष्ण महाराज की शिक्षा 136
36. अंतिम पृष्ठ 151

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः