योगिराज श्रीकृष्ण -लाला लाजपतराय
चौबीसवाँ अध्याय
विदुर और कृष्ण का वार्तालाप
इसके उत्तर में कृष्ण बोले, "हे विदुर! मैं इस उपदेश के लिए आपका बहुत ही अनुगृहीत हूँ। धर्मात्मा और भद्रपुरुष ऐसी ही सलाह दिया करते हैं। परन्तु मुझे खेद है कि मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता। मैं दृढ़-संकल्प करके आया हूँ कि कम-से-कम एक बार अवश्य इस बात का यत्न करूँ कि ये लोग वृथा सृष्टि के प्राण नष्ट न करें।" "इस समय मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूँ कि देश को और विशेषतः क्षत्रिय वंश को इस विनाश से बचाने के लिए एक बार फिर कोशिश करूँ। यदि इसमें मैं सफलीभूत हुआ तो मैं समझूँगा कि मैंने महान धर्म का काम किया। नहीं तो कम-से-कम मुझे इतना हार्दिक संतोष तो अवश्य रहेगा कि मैंने अपनी ओर से यत्न करने में कुछ कमी नहीं की। प्रत्येक सच्चे मित्र का धर्म है कि अपने मित्र को बुरे काम से बचाये। कौरव और पाण्डव मेरे संबंधी हैं, दोनों के साथ मुझे प्रेम है। इस समय मैं देखता हूँ कि दोनों दल एक-दूसरे को नष्ट करने के लिए तत्पर हैं। इसलिए मेरा धर्म है कि इस उत्पात को मिटाने का यत्न करूँ। चाहे कोई माने या न माने।" सारांश यह है कि बहुत देर तक विदुर और कृष्ण में इस तरह की बातचीत होती रही, किन्तु श्रीकृष्ण अपने संकल्प में दृढ़ रहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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