विरह-पदावली -सूरदास
(202) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- मोहन!) ये दिन रूठने के नहीं हैं। (देखो) काली घटा उठ रही है, वायु के (शीतल) झकोरे चल रहे हैं (और इसके कारण) लताएँ वृक्षों से लिपटी जा रही हैं। मेढ़क, मयूर, पपीहे, भौंरे और कोकिल अमृतभरी वाणी बोल रहे हैं। स्वामी! तुम्हारे दर्शन के बिना यह हमारी शत्रु (वर्षा) ऋतु पास आ गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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