- महाभारत शल्य पर्व के अंतर्गत 17वें अध्याय में संजय ने युधिष्ठिर के द्वारा शल्य के वध का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]
विषय सूची
भीम का पराक्रम
संजय कहते हैं- राजन! उन बाणों से शल्य को मोहित हुआ देख भीमसेन ने उनके कवच को भी काट डाला। भीमसेन के द्वारा अपना कवच कट जाने पर भयंकर बलशाली महामनस्वी मद्रराज शल्य सहस्र तारों के चिह्न से सुशोभित ढाल और तलवार लेकर उस रथ से कूद पड़े और कुन्तीपुत्र की ओर दौडे़। उन्होंने नकुल के रथ का हरसा काटकर युधिष्ठिर पर धावा किया। क्रोध में भरे हुए यमराज के समान उछलकर आने वाले राजा शल्य को धृष्टद्युम्न, द्रौपदी के पुत्र, शिखण्डी तथा सात्यकि ने सहसा चारों ओर से घेर लिया। महामना भीम ने नौ बाणों से उनकी अनुपम ढाल के टुकडे़-टुकडे़ कर डाले। फिर आपकी सेना के बीच में बड़े हर्ष के साथ गर्जना करते हुए उन्होंने अनेक भल्लों द्वारा उनकी तलवार मुट्ठी भी काट डाली। भीमसेन का एक अद्भुत कर्म देखकर पाण्डव दल के श्रेष्ठ रथी बड़े प्रसन्न हुए और वे हँसते हुए जोर-जोर से सिंहनाद करने तथा चन्द्रमा के समान उज्ज्वल शंख बजाने लगे। उस भयानक शब्द के संतप्त हो अजेय कौरव सेना विषाद ग्रस्त एवं अचेत-सी हो गयी। वह खून से लथपथ हो अज्ञात दिशाओं की ओर भागने लगी।
युधिष्ठिर द्वारा शल्य पर शक्ति का प्रयोग करना
भीम जिनके अगुआ थे, उन पाण्डव पक्ष के प्रमुख वीरों द्वारा बाणों से आच्छादित किये गये मद्रराज शल्य सहसा बड़े वेग से युधिष्ठिर की ओर दौडे़, मानों कोई सिंह किसी मृग को पकड़ने के लिये झपटा हो। धर्मराज युधिष्ठिर के घोडे़ और सारथि मारे गये थे, इसलिये वे क्रोध से उदीप्त हो प्रज्वलित अग्नि के समान जान पड़ते थे। उन्होंने अपने शत्रु मद्रराज शल्य को देखकर उन पर बलपूर्वक आक्रमण किया।[1] उस समय श्रीकृष्ण के वचन को स्मरण करके उन्होंने शीघ्र ही शल्य को मार डालने का निश्चय किया। धर्मराज के घोडे़ और सारथि तो मारे ही जा चुके थे केवल रथ शेष था, अतः उसी पर खडे़ होकर उन्होंने शल्य पर शक्ति के ही प्रयोग का विचार किया। महात्मा युधिष्ठिर ने महामना शल्य के पूवोक्त कर्म को देख सुनकर और उन्हें अपना ही भाग अवशिष्ट जानकर, जैसा श्रीकृष्ण ने कहा था उसके अनुसार शल्य के वध का संकल्प किया। धर्मराज ने मणि और सुवर्णमय दण्ड से युक्त तथा सोने के समान प्रकाशित होने वाली शक्ति हाथ में ली और मन-ही-मन कुपित हो सहसा रोष से जलती हुई आँखें फाड़कर मद्रराज शल्य की ओर देखा। नरदेव! पापरहित, पवित्र अन्तःकरण वाले, राजा युधिष्ठिर के रोषपूर्वक देखने पर भी मद्रराज शल्य जलकर भस्म नहीं हो गये, यह मुझे अद्भुत बात जान पड़ती है। तदनन्तर कौरव-शिरोमणि महात्मा युधिष्ठिर ने सुन्दर एवं भयंकर दण्डवाली तथा उत्तम मणियों से जटित होने के कारण प्रज्वलित दिखायी देनेवाली उस देदीप्मान शक्ति को मद्रराज शल्य के ऊपर बड़े वेग से चलाया। बलपूर्वक फेंकी जाने से प्रज्वलित हुई तथा आग की चिनगारियाँ छोड़ती हुई उस शक्ति को, वहाँ आये हुए समस्त कौरवों ने प्रलयकाल में आकाश से गिरने वाली बड़ी भारी उल्का के समान सहसा शल्य पर गिरती देखा।[2]
शक्ति की महिमा
वह शक्ति पाश हाथ में लिये हुए कालरात्रि के समान उग्र, यमराज की धाय के समान भयंकर तथा ब्रह्मदण्ड के समान अमोघ थी। धर्मराज ने बड़े यत्न और सावधानी के साथ युद्ध में उसका प्रयोग किया था। पाण्डवों गन्ध (चन्दन), माला, उत्तम आसन, पेय-पदार्थ और भोजन आदि अर्पण करके सदा प्रयत्नपूर्वक उसकी पूजा की थी। वह प्रलयकालिक संवर्तक नामक अग्नि के समान प्रज्वलित होती और अर्थर्वांगिरस मन्त्रों से प्रकट की गयी कृत्या के समान अत्यन्त भयंकर जान पड़ती थी। त्वष्टा प्रजापति (विश्वकर्मा) ने भगवान शंकर के लिये उस शक्ति का निर्माण किया था। वह शत्रुओं के प्राण और शरीर को अपना ग्रास बना लेने वाली थी तथा जल, थल एवं आकाश आदि में रहने वाले प्राणियों को भी बलपूर्वक मार डालने में समर्थ थी। उसमें छोटी-छोटी घंटियाँ और पताकाएँ लगी थीं, मणि और हीरे जडे़ गये थे, वैदूर्यमणि के द्वारा उसे चित्रित किया गया था। विश्वकर्मा ने नियमपूर्वक रहकर बड़े प्रयत्न से उसको बनाया था। वह ब्रह्मद्रोहियों का विनाश करने वाली तथा लक्ष्य वेधने में अचूक थी। बल और प्रयत्न के द्वारा उसका वेग बहुत बढ़ गया था,
युधिष्ठिर द्वारा शल्य का वध
युधिष्ठिर ने उस समय मद्रराज का वध करने के लिये उसे घोर मंत्रों से अभिमंत्रित करके उत्तम मार्ग के द्वारा प्रयत्नपूर्वक छोड़ा था। जैसे रुद्र ने अन्धकासुर पर प्राणन्तकारी बाण छोड़ा था, उसी प्रकार क्रोध से नृत्य-सा करते हुए धर्मराज युधिष्ठिर ने सुन्दर हाथवाली अपने सुदृढ़ बाँह फैलाकर वह शक्ति शल्य पर चला दी और गरजते हुए कहा- ओ पापी! तू मारा गया। पूर्वकाल में त्रिपुरों का विनाश करते समय भगवान महेश्वर का जैसा स्वरूप प्रकट हुआ था, वैसा ही शल्य के संहारकाल में उस समय धर्मात्मा युधिष्ठिर का रूप जान पड़ता था। वे अपने किरण समूहों से प्रभा का पुंज बिखेर रहे थे।। युधिष्ठिर ने उस उत्तम शक्ति को अपना सारा बल लगाकर चलाया था। इसके सिवा, उसके बल और प्रभाव को रोकना किसी के लिये असम्भव था तो भी उसकी चोट सहने के लिये मद्रराज शल्य गरज उठे, मानो हवन की हुई धृतधारा को ग्रहण करने के लिये अग्निदेव प्रज्वलित हो उठे हों। परन्तु वह शक्ति राजा शल्य के मर्मस्थानों को विदीर्ण करके उनके उज्ज्वल एवं विशाल वक्षःस्थल को चीरती तथा विस्तृत यश को दग्ध करती हुई जल की भाँति धरती में समा गयी। उसकी गति कहीं भी कुण्ठित नहीं नहीं होती थी।[2] जैसे कार्तिकेय की शक्ति से आहत हुआ महापर्वत क्रौंच गेरूमिश्रित झरनों के जल से भीग गया था, उसी प्रकार नाक, आँख, कान और मुख से निकले तथा घावों से बहते हुए खून से शल्य का सारा शरीर नहा गया।
कुरूनन्दन! भीमसेन ने जिन के कवच को छिन्न-भिन्न कर डाला था, वे इन्द्र के ऐरावत हाथी के समान विशालकाय राजा शल्य दोनों बाहें फैलाकर वज्र के मारे हुए पर्वत-शिखर की भाँति रथ से पृथ्वी पर गिर पड़े। मद्रराज शल्य धर्मराज युधिष्ठिर के सामने ही अपनी दोनों भुजाओं को फैलाकर ऊँचे इन्द्रध्वज के समान धराशायी हो गये। उनके सारे अंग विदीर्ण हो गये थे तथा वे खून से नहा उठे थे। जैसे प्रियतमा कामिनी अपने वक्षःस्थल पर गिरने की इच्छा वाले प्रियतम का प्रेमपूर्वक स्वागत करती है, उसी प्रकार पृथ्वी ने अपने ऊपर गिरते हुए नरश्रेष्ठ शल्य को मानों प्रेमपूर्वक आगे बढ़कर अपनाया था। प्रियतमा कान्ता की भाँति इस वसुधा का चिरकाल तक उपभोग करने के पश्चात राजा शल्य मानों अपने सम्पूर्ण अंगों से उसका अलिंगन करके सो गये थे। उस धर्मानुकूल युद्ध में धर्मात्मा धर्मपुत्र युधिष्ठिर के द्वारा मारे गये राजा शल्य यज्ञ में विधिपूर्वक घी की आहुति पाकर शांत होने वाली स्विष्ट कृत अग्नि के समान सर्वथा शांत हो गये। शक्ति ने राजा शल्य के वक्षःस्थल को विदीर्ण कर डाला था, उनके आयुध तथा ध्वज छिन्न-भिन्न हो बिखरे पड़े थे और वे सदा के लिये शांत हो गये थे तो भी मद्रराज को लक्ष्मी (शोभा या कांति) छोड़ नहीं रही थी। तदनन्तर युधिष्ठिर ने इन्द्रधनुष के समान कांतिमान दूसरा धनुष लेकर सर्पों का संहार करने वाले गरुड़ की भाँति युद्धस्थल में तीखे भल्लों द्वारा शत्रुओं के शरीरों का नाश करते हुए क्षणभर में उन सबका विध्वंस कर दिया।[3]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 17 श्लोक 19-36
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 17 श्लोक 37-50
- ↑ महाभारत शल्य पर्व अध्याय 17 श्लोक 51-68
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