विरह-पदावली -सूरदास
राग नट (सूरदास जी के शब्दों में श्री राधा कह रही हैं- सखी!) दिन-प्रतिदिन (यह) वियोग का (दुःख) कौन सहन करे। सखी! मेरा यह शरीर वियोग का इतना ज्वर सहन करने योग्य नहीं है। पुष्पों की मला बना, सुगन्धित शय्या सजा और वस्त्रों को कुंकुम (केसर) में डुबाकर दुःख मत दे। अरी! हृदय पर से कमल दलों को दूर कर दे और कंचुकी (चोली) के बन्धन भी खोल दे। प्रत्येक वन में जाकर मयूरों, पपीहों, कोयलों और और भौंरों को बोलकर कह दे (कि अब वे शोर न मचायें)। चन्द्रमा के उदय होने पर मेरे हृदय पर चन्दन लगा शीतल-मन्द सुगन्धित वायु बहा दे। (अब तो मैं) तुझे सुना-सुनाकर अपने मुख से बार-बार श्यामसुन्दर नाम रटती हुई तेरे देखते-देखते कामरूपी यज्ञ में शरीर का हवन करके माधव से जा मिलूँगी। इस प्रकार युवती के प्रेम की रीति (उत्कट प्रेम) को जानकर सूरदास के स्वामी कृपालु हो गये (उन्होंने कृपा की) और वे मनमोहन पुराने प्रेम का का स्मरण करके उसी क्षण (वहाँ) प्रकट हो गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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