छंद
छाए जु फूलनि कुंज मंडप, पुलिन मैं बेदी रची।
बैठे जु स्यामा स्याम बर, त्रैलोक की सोभा सची।।
उत कोकिला-गन करैं कुलाहल, इत सकल ब्रज-नारियाँ।
आईं जु नेवते दुहूँ दिसि तैं, देतिं आनँद गारियाँ।।
चौपाई
मिलि मन दै सुख आसन बैसे। चितवनि वारि किये सब तैसे।
ता परि पानि-ग्रहण विधि कीन्ही। तब मंडप भ्रमि भांवरि दीन्ही।।
छंद
तब देत भाँवरि कुंज-मंडप, प्रीति-ग्रंथि हियैं परी।
अति रुचिर परम पवित्र राका, निकट बृंदा सुभ धरी।।
गाए जु गीत पुनीत बहु बिध, बेद-रुचि-सुंदर-ध्वनी।।।
श्री नंद-सुत वईषभानु-तनया रास मैं जोरी बनी।।
चौपाई
मनमथ सैनिक भए बराती। द्रुम फूले बन अनुपम भांती।
सुर बंदीजन मिलि जस गाए। मधवा बाजन अनँद बजाए।।
छंद
बाजहिं जु बाजन सकल सुर नभ पुहुप-अंजलि बरषहीं।
थकि रहे ब्योम-बिमान, मुनि–जन जय-सबद करि हरषहीं।।
सुनि सूरदासहिं भयौ आनँद, पुजी मन की साधिका।
श्री लाल गिरिधर नवल दूलह, दुलहिनी श्री राधिका।।1072।।