- महाभारत आश्वमेधिक पर्व के वैष्णव धर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 92 में यमलोक मार्ग के कष्ट का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
युधिष्ठिर-वैशम्पायन संवाद
युधिष्ठिर ने पूछा– दैत्यों का विनाश करने वाले देवदेवेश्वर! मेरे मन में सुनने की बड़ी उत्कंठा है। मैं आपका भक्त हूँ। केशव! आप सर्वज्ञ हैं, इसलिये बतलाइये, मनुष्य लोक के और यमलोक के बीच की दूरी कितनी है? सर्वश्रेष्ठ देव! जब जीव पांच भौतिक शरीर से अलग होकर त्वचा, हड्डी और मांस से रहित हो जाता है, उस समय उसे समस्त सुख– दु:ख का अनुभव किस प्रकार होता है? सुना जाता है कि मनुष्य लोक में जीव अपने शुभाशुभ कर्मों से बंधा हुआ है। उसे मरने के बाद यमराज की आज्ञा से भयंकर, दुर्धर्ष और घोर पराक्रमी यमदूत कठिन पाशों से बांधकर मारते– पीटते हुए ले जाते हैं। वह इधर–उधर भागने की चेष्ठा करता है। वहाँ पुण्य– पाप करने वाले सब तरह के सुख– दु:ख भोगते हैं; अत: बतलाइये, मरे हुए प्राणी को दुर्धर्ष यमदूत किस प्रकार ले जाते हैं? केशव! यमलोक में जाते समय जीव का निश्चित रूप–रंग कैसा होता है? और उसका शरीर कितना बड़ा होता है? ये सब बातें बताइये।
श्रीभगवान ने कहा– राजन! नरेश्वर! तुम मेरे भक्त हो, इसलिये जो कुछ पूछते हो, वह सब बात यथार्थ रूप से बता रहा हूँ; सुनो! युधिष्ठिर! मनुष्यलोक और यमलोक में छियासी हजार योजन का अन्तर है। युधिष्ठिर! इस बीच में मार्ग में न वृक्ष की छाया है, न तालाब है, न पोखरा है, न बावड़ी है और न कुआँ ही है। युधिष्ठिर! उस मार्ग में कहीं कोई भी मण्डप, बैठक, प्याऊ, घर, पर्वत, नदी, गुफा, गांव, आश्रम, बगीचा, वन अथवा ठहरने का दूसरा कोई स्थान भी नहीं है। जब जीव का मृत्यु काल उपस्थित होता है और वह वेदना से अत्यन्त छटपटाने लगता है, उस समय कारण– तत्त्व शरीर का त्याग कर देते हैं, प्राण कण्ठ तक आ जाते हैं और वायु के वश में पड़े हुए जीव को बरबस इस शरीर से निकलकर वायु रूप धारी जीव एक दूसरे अदृश्य शरीर में प्रवेश करता है।[1]
यमलोक के मार्ग में कष्ट का उपाख्यान
उस शरीर के रूप, रंग और माप भी पहले शरीर के ही समान होते हैं। उसमें प्रविष्ट होने पर जीव को कोई देख नहीं पाता। देहधारियों का अन्तरात्मा जीव आठ अंगों से युक्त होकर यमलोक की यात्रा करता है। वह शरीर काटने, टुकड़े–टुकड़े करने, जलाने अथवा मारने से नष्ट नहीं होता। यमराज की आज्ञा से नाना प्रकार के भयंकर रूपधारी अत्यन्त क्रोधी और दुर्धुर्ष यमदूत प्रचण्ड हथियार लिये आते हैं और जीव को जबरदस्ती पकड़कर ले जाते हैं। उस समय जीव स्त्री-पुत्रादि के स्नेह-बन्धन में आबद्ध रहता है। जब विवश हुआ वह ले जाया जाता है, तब उसके किये हुए पाप-पुण्य उसके पीछे-पीछे जातें हैं।
उस समय उसके बन्धु-बान्धव दु:ख से पीड़ित होकर करुणा जनक स्वर में विलाप करने लगते हैं तो भी वह सबकी ओर से निरपेक्ष हो समस्त बन्धु-बान्धवों को छोड़कर चल देता है। माता, पिता, भाई, मामा, स्त्री, पुत्र और मित्र रोते रह जातें हैं, उनका साथ छूट जाता है। उनके नेत्र और मुख आंसुओं से भीगे होते हैं। उनकी दशा बड़ी दयनीय हो जाती है, फिर भी वह जीव उन्हें दिखायी नही पड़ता। वह अपना शरीर छोड़कर वायुरूप हो चल देता है। वह पाप कर्म करने वालों का मार्ग अन्धकार से भरा है और उसका कहीं पार नहीं दिखायी देता। वह मार्ग बड़ा भयंकर, तमोमय, दुस्तर, दुर्गम और अन्त तक दु:ख-ही-दुख देने वाला है। यमराज के अधीन रहने वाले देवता, असुर और मनुष्य आदि जो भी जीव पृथ्वी पर हैं, वे स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक हों अथवा गर्भ में स्थित हों, उन सबको एक दिन उस महान पथ की यात्रा करनी ही पड़ती है।
पूर्वाह्ण हो या पराह्ण, संध्या का समय हो या रात्रि का, आदि रात हो या सवेरा हो गया हो, वहाँ की यात्रा सदा खुली ही रहती है। उपर्युक्त सभी प्राणी दुर्धर्ष, उग्र शासन करने वाले प्रचण्ड यमदूतों के द्वारा विवश होकर मार खाते हुए यमलोक जाते हैं। यमलोक के पथ पर कहीं डर कर, कहीं पागल होकर, कहीं ठोकर खाकर और कहीं वेदना से आर्त होकर रोते– चिल्लाते हुए चलना पड़ता है। यमदूतों की डांट सुनकर जीव उद्विग्न हो जाते हैं और भय से विह्वल हो थर– थर कांपने लगते हैं। दूतों की मार खाकर शरीर में बेतरह पीड़ा होती है तो भी उनकी फटकार सुनते हुए आगे बढ़ना पड़ता है।
धर्महीन पुरुषों को काट, पत्थर, शिला, डंडे, जलती लकड़ी, चाबुक और अंकुश की मार खाते हुए यमपुरी को जाना पड़ता है। जो दूसरे जीवों की हत्या करते हैं, उन्हें इतनी पीड़ा दी जाती है कि वे आर्त होकर छटपटाने, कराहने तथा जोर–जोर से चिल्लाने लगते हैं और उसी स्थित में उन्हें गिरते–पड़ते चलना पड़ता है। चलते समय उनके ऊपर शक्ति, भिन्दिपाल, शंकु, तोमर, बाण और त्रिशूल की मार पड़ती है। कुत्ते, बाघ, भेड़िये और कौवे उन्हें चारों ओर से नोचते हैं। माँस काटने वाले राक्षस भी उन्हें पीड़ा पहुँचाते हैं। जो लोग मांस खाते हैं उन्हें उसे मार्ग में चलते समय भैंसे, मृग, सुअर और चितकबरे हरिन चोट पहुँचाते और उनके मांस काटकर खाया करते हैं। [2] जो पापी बालकों की हत्या करते हैं, उन्हें चलते समय सुई के समान तीखे डंक वाली मक्खियां चारों ओर से काटती रहती हैं। जो लोग अपने ऊपर विश्वास करने वाले स्वामी, मित्र अथवा स्त्री की हत्या करते हैं, उन्हें यमपुर के मार्ग पर चलते समय यमदूत हथियारों से छेदते रहते हैं। जो दूसरे जीवों को भक्षण करते या उन्हें दु:ख पहुँचाते हैं, उनको चलते समय राक्षस और कुत्ते काट खाते हैं। जो दूसरों के कपड़े, पलंग और बिछोने चुराते हैं, वे उस मार्ग में पिशाचों की तरह नंगे होकर भागते–चलते हैं। जो दुरात्मा और पापाचारी मनुष्य बलपूर्वक दूसरों की गौ, अनाज, सोना, खेत और गृह आदि को हड़प लेते है, वे यमलोक में जाते समय यमदूतों के हाथ से पत्थर, जलती हुई लकड़ी, डंडे, काठ और बेंत की छड़ियों की मार खाते हैं तथा उनके समस्त अंगों में घाव हो जाता है।
जो मनुष्य यहाँ नरक का भय न मानकर ब्राह्मणों का धन छान लेते हैं, उन्हें गालियाँ सुनाते हैं और सदा मारते रहते हैं, वे जब यमपुर के मार्ग में जाते हैं, उस समय यमदूत इस तरह जकड़कर बांधते हैं कि उनका गला सूख जाता है; उनकी जीभ, आँख और नाक काट ली जाती है, उनके शरीर पर दुर्गन्धित पीब और रक्त डाला जाता है, गीदड़ उनके मांस नोंच–नोंच कर खाते हैं और क्रोध में भरे हुए भयानक चाण्डाल उन्हें चारों ओर से पीड़ा पहुँचाते हैं। इससे वे करुणायुक्त भीषण स्वर से चिल्लाते रहते हैं। यमलोक में पहुँचने पर भी उन पापियों को जीते–जी विष्ठा के कुएँ में डाल दिया जाता है और वहो वे करोड़ो वर्षों तक अनेक प्रकार से पीड़ा सहते हुए कष्ट भोगते रहते हैं। राजन! तदनन्तर समयानुसार नरकयातना से छुटकारा पाने पर वे इस लोक में सौ करोड़ जन्मों तक विष्ठा के कीड़े होते हैं। दान न करने वाले जीवों के कण्ठ, मुंह और तालु भूख–प्यास के मारे सूखे रहते हैं तथा वे चलते समय यमदूतों से बारंबार अन्न और जल मांगा करते हैं।
वे कहते हैं– ‘मालिक! हम भूख और प्यास से बहुत कष्ट पा रहे हैं, अब चला नहीं जाता; कृपा करके हमें अन्न और पानी दे दीजिये। ‘इस प्रकार याचना करते ही रह जाते हैं, किंतु कुछ भी नहीं मिलता। यमदूत उन्हें उसी अवस्था में यमराज के घर पहुँचा देते हैं।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-14
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-15
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णव धर्म पर्व भाग-16
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