विरह-पदावली -सूरदास
राग नट (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) मैंने चित्र में अंकित करके (श्यामसुन्दर की) सब शोभा सजायी, जल-भरे मेघ के समान शरीर तथा स्वर्ण की-सी कान्ति वाला वस्त्र बनाकर (उनके) वक्षःस्थल पर बहुत-सी मालाएँ लटकती बनायीं। उन्नत (चौड़े) कंधे, पतली कांटे, विशाल भुजाएँ और अंग-प्रत्यंग सुखदायक बनाये। (अरी, क्या कहूँ, उस समय उनके) मनोहर कपोल, शोभा देती हुई नासिका और हिलती हुई अलकें (कैसी) छटा दे रही थीं। जानती थी कि वह चंचल लेखनी द्वारा बनाया गया (चित्र) है, (फिर भी मैंने उसे ही निरख-निरखकर किसी प्रकार) दिन बिताया; किंतु (श्यामसुन्दर के) कोमल वचन कानों से सुनने के लिये (मैं) अत्यन्त आतुर (उत्सुक) होकर व्याकुल हो उठी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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