विरह-पदावली -सूरदास
राग कान्हरौ (कोई गोपी कह रही है-) सखी! मैंने समझा था कि श्यामसुन्दर (सचमुच) आये हैं। पर (अपने) चौंक पड़ने से फिर पछता रही हूँ। इससे शरीर इतना अधिक तड़प रहा है, जैसे पानी के बिना मछली तड़फड़ाती हो। सखी! (यह) सुन्दर शरीर (तो) वियोग के ज्वर में जल रहा है, (अब) इसे उपायों के द्वारा स्वाभाविक (स्वस्थ) दशा में नहीं लाया जा सकता। क्या करूँ, अब (देह के सारे अंग) मिलकर बिना पथ के चलने (कुमार्ग पर जाने) वाले हो गये हैं। (जिससे) वेदना बढ़ गयी और दुःख दूना हो गया। (अब ये) सब समाचार लिखकर किसी यात्री को (मथुरा) भेजूँ कि वियोग रूपी विपत्ति से (आपके प्रेमी का) शरीर अत्यन्त व्याकुल हो गया है, अतः स्वामी! तुम्हारे दर्शन के बिना (मेरा) यह दुःख कैसे कम हो।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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