मीराँबाई की पदावली पृ. 11

मीराँबाई की पदावली

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पद रचना-परंपरा

मीराँबाई की पदावली के प्रायः सभी पद गीतों के रूप में है। उनमें से अधिकांश में पहले एक टेक देकर उसके नीचे तीन-चार वा अधिक चरण जोड़ दिये गए है। और पूरे पद सिद्धों की पद्धति को किसी न किसी प्रकार के राग व रागिनी के अन्तर्गत रक्खा गया है। गीतों की यह परंपरा हिन्दी में, उसके आदि काल से ही चली आती है। उस समय जबकि साहित्यिक अपभ्रंश पुरानी हिन्दी में परिणत हो रही थी, बौद्ध सिद्धों ने, विक्रम की नवीं शताब्दी के लगभग अपने समय की प्रचलित भाषा में चर्चा गीतियों की रचना की थी जिनमें हम इन गीतों के पूर्वरूप भलीभाँति देख सकते हैं। सिद्धों में[1] अनेक गीत पदों के रूप मे आज भी सुरक्षित हैं। सिद्धों की उक्त गीतियों में भी, इधर के गीतों की ही भाँति, रागों की व्यवस्था हैं; किन्तु उनमें टेक प्रायः नहीं दीख पड़ते और पूरा पद एक ही प्रकार के किसी साधारण छन्द की जैसे अरिल्ल, चैपाई, चैबोला आदि द्विपदियों में लिखा हुआ मिलता है। उनके बहुत से पदों में, भाषा की शुद्धता व प्रवाह के न रहने के कारण, उनमें गेयत्व नहीं पाया जाता और न विषय की दुरूहता के कारण, उनमें काव्य की दृष्टि से, वैसी सरसता या रमणीयता ही दृष्टिगोचर होती है। उनमें अधिकतर व्यंग, वर्णन का उपदेश भरे पड़े हैं और यदि कहीं-कहीं उनमें कुछ अनुभव पूर्ण उद्गार भी मिलते हैं तो वे रचयिता के सांप्रादायिक साधनों के महत्त्व के द्योतक ही जान पड़ते हें सिद्धों व नाथों की उक्त रचना-पद्धति को पीछे से मराठी में नामदेव आदि तथा हिन्दी में कबीर साहब व रैदास आदि संतों ने, कुछ फेर-फार के साथ, प्रचलित रखा। अतएव इनके भी पद अधिकतर नैतिक वा आध्यात्मिक विषयों से परिपूर्ण रहने के कारण प्रायः दार्शनिक व उपदेशात्मक ही बनकर रह गये है। स्वानुभूति द्वारा उत्पत्र ह्नद्गत भाव तथा शुद्ध भक्तिभावना से ओतप्रोत पदों की संख्या, उनकी रचनाओं के अन्तर्गत, अपेक्षाकृत कम ही देखने को मिलती हैं।

उक्त कई दोषों से मुक्त व विशुद्ध पदों का संग्रह, सर्वप्रथम, हमें तेरहवीं विक्रम-शताब्दी के भक्त कवि जयदेव द्वारा रचे गये प्रसिद्ध ‘‘गीत गोविन्द’’ में मिलता है, जो हिन्दी में न होकर, संस्कृत में है और, वैष्णवों की पद्धति उसके अनन्तर, पन्द्रहवीं व सोलहवीं विक्रम-शताब्दियों में, प्रायः उसी आदर्श पर, मैथिली में विद्यापति, गुजराती में नरसी मेहता तथा बँगला में चंडीदास द्वारा, की गई रचनायें भी पायी जाती हैं। मीराँबाई के पदों की रचना अधिकतर इस दूसरी पद्धति पर ही हुई है और इसी का अनुसरण उनके दीर्घ वा अल्पकालीन समसामयिक[2] भक्त सूरदास, हितहरिवंश, गदाधर भट नन्ददास, कृष्णदास, कुम्भनदास, चतुर्भुजदास वा हरिव्यास, आदि ने भी किया है। इसके अनुसार प्रत्येक पद का विषय भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के नाम, रूप, लीला या धाम का कुछ न कुछ वर्णन हुआ करता है और कभी-कभी उसमें कवि द्वारा प्रदर्शित कतिपय भक्तिपूर्ण मनोभावों का भी समावेश रहा करता है। कवि अपने इष्टदेव के सम्बन्ध में नयी-नयी कल्पनायें किया करता है और अपनी रचनाओं द्वारा उक्त विषयों में से किसी न किसी का भावपूर्ण उल्लेख, भिन्न-भिन्न शब्दों में[3] बार-बार करता हुआ भी नहीं अघाता। उक्त मनोभाव भी अधिकर प्रार्थना वा विनय के ही साधनों द्वारा व्यक्त हुए रहते हैं जिससे[4] उनका पूर्ण रूप से स्पष्टीकरण हुआ नहीं दीखता। महिमामय वर्णनों के सामने उक्त व्यक्तिगत मनोभाव प्रायः दब से जाते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. व नाथ-पंथियों के भी प्रायः वैसे ही
  2. अथवा पारवर्ती भी
  3. किन्तु प्रायः एक ही प्रणाली के अनुसार,
  4. एक प्रकार के श्रद्धा-जनित द्वैतभाव की बाघा आ जाने से

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