माधौ, नैंकु हटकौ गाइ।
भ्रमत निसि-बासर, अपथ-पथ, अगह गहि नहिं जाइ।
छुघित अति न अघाति कबहूँ, निगम-द्रुम दलि खाइ।
अष्ट -दस-घट नीर अँचवति, तृषा तऊ न बुझाइ।
छहौं रस जौ धरौं आगै, तऊ न गंध सुहाइ।
और अहित अभच्छ भच्छति, कला बरनि न जाइ।
ब्योम, धर, नद, सैल, कानन इते चरि न अघाइ।
नील खुर अरु अरुन लोचन, सेत सींग सुहाइ।
भुवन चौदह खुरनि खूँदति, सु घौं कहाँ समाइ।
ढीठ, निठुर, न डरति काहूँ, त्रिगुन ह्वै समुहाइ।
हरै खल-बल दनुज-मानव-सुरनि सीस चढ़ाइ।
रचि-बिरचि मुख-भौंह-छबि, लै चलति चित्त चुराइ।
नारदादि सुकादि मुनिजन थके करत उपाइ।
ताहि कहु कैसै कृपानिधि, सकत सूर चराइ ?।।56।।