महाभारत सभा पर्व अध्याय 41 श्लोक 1-16

एकचत्वारिंश (41) अध्‍याय: सभा पर्व (शिशुपालवध पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: एकचत्वारिंश अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


शिशुपाल द्वारा भीष्म की निन्दा

शिशुपाल बोला- कुल को कलंकित करने वाले भीष्म! तुम अनेक प्रकार की विभीषिकाओं द्वारा इन सब राजाओं को डराने की चेष्टा कर रहे हो। बड़े-बूढ़े होकर भी तुम्हें अपने इस कृत्य पर लज्जा क्यों नही आती? तुम तीसरी प्रकृति में स्थित (नपुंसक) हो, अत: तुम्हारे लिये इस प्रकार धर्म विरुद्ध बातें कहना उचित ही है। फिर भी यह आश्चर्य है कि तुम समूचे कुरुकुल के श्रेष्ठ पुरुष कहे जाते हो। भीष्म! जैसे एक नाव दूसरी नाव में बाँध दी जाय, एक अंधा दूसरे अंधे के पीछे चले, वही दशा इन सब कौरवों की है, जिन्हें तुम जैसा अगुआ मिला है। तुमने श्रीकृष्ण के पूतना वध आदि कर्मों का जो विशेष रूप से वर्णन किया है, उससे हमारे मन को पुन: बहुत बड़ी चोट पहुँची है। भीष्म! तम्हें अपने ज्ञानीपन का बड़ा घमंड है, परंतु तुम हो वास्तव में बड़े मूर्ख। ओह! इस केशव की स्तुति करने की इच्छा होते ही तुम्हारी जीभ के सैकड़ों टुकड़ें क्यों नही हो जाते?

भीष्म! जिसके प्रति मूर्ख से मूर्ख मनुष्यों को भी घृणा करनी चाहिये, उसी ग्वालिये की तुम ज्ञान वृद्ध होकर भी स्तुति करना चाहते हो (यह आश्चर्य है)। भीष्म! यदि इसने बचपन में एक पक्षी (बकासुर) को अथवा जो युद्ध की कला से सर्वथा अनभिज्ञ थे, उन अश्व (केशी) और वृषभ (अरिष्टासुर) नामक पशुओं को मार डाला तो इसमें क्या आश्चर्य की बात हो गयी? भीष्म! छकड़ा क्या है, चेतनाशून्य लकड़ियों का ढेर ही तो, यदि इसने पैर से उसको उलट ही दिया तो कौन अनोखी करामात कर डाली? आक के पौधों के बराबर दो अर्जुन वृक्षों को यदि श्रीकृष्ण ने गिरा दिया अथवा एक नाग को ही मार गिराया तो कौन बड़े आश्चर्य का काम कर डाला? भीष्म! यदि इसने गोवर्धन पर्वत को सात दिन तक अपने हाथ पर उठाये रखा तो उसमें भी मुझे कोई आश्चर्य की बात नहीं जान पड़ती, क्योंकि गोवर्धन तो दीमकों की खोदी हुई मिट्टी का ढेर मात्र है। भीष्म! कृष्ण ने गोवर्धनपर्वत के शिखर पर खेलते हुए अकेले ही बहुत सा अन्न खा लिया, यह बात भी तुम्हारे मुँह से सुनकर दूसरे लोगों को ही आश्चर्य हुआ होगा (मुझे नहीं)।

धर्मज्ञ भीष्म! जिस महाबली कंस का अन्न खाकर यह पला था, उसी को इसने मार डाला। यह भी इसके लिये कोई बड़ी अद्भुत बात नहीं है। कुरुकुलधाम भीष्म! तुम धर्म को बिलकुल नहीं जानते। मैं तुमसे धर्म की जो बात कहूँगा, वह तुमने संत महात्माओं के मुख से भी नहीं सुनी होगी। स्त्री पर, गौ पर, ब्राह्मणों पर तथा जिसका अन्न खाया अथवा जिनके यहाँ अपने को आश्रय मिला हो, उन पर भी हथियार न चलाये। भीष्म! जगत में साधु धर्मात्मा पुरुष सजनों को सदा इसी धर्म का उपदेश देते रहते हैं, किंतु तुम्हारे निकट यह सब धर्म मिथ्या दिखायी देता है। कौरवाधम! तुम मेरे सामने इस कृष्ण की स्तुति करते हुए इसे ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध बात रहे हो, माना मैं इसके विषय में कुछ जानता ही न होऊँ। भीष्म! यदि तुम्हारे कहने से गोघाती और स्त्रीहन्ता होते हुए भी इस कृष्ण की पूजा हो रही है तो तुम्हारी धर्मज्ञता की हद हो गयी। तुम्हीं बताओ, जो इन दोनों ही प्रकार की हत्याओं का अपराधी है, वह स्तुति का अधिकारी कैसे हो सकता है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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