महाभारत सभा पर्व अध्याय 31 श्लोक 1-23

एकत्रिंश (31) अध्‍याय: सभा पर्व (दिग्विजय पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: एकत्रिंश अध्याय: श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद


सहदेव के द्वारा दक्षिण दिशा की विजय

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सहदेव भी धर्मराज युधिष्ठिर से सम्मानित हो दक्षिण दिशा पर विजय पाने के लिये विशाल सेना के साथ प्रस्थित हुए। शक्तिशाली सहदेव ने सबसे पहले समस्त शूरसेन निवासियों को पूर्णरूप से जी लिया, फिर मत्स्यराज विराट को अपने अधीन बनाया। राजाओं के अधिपति महाबली दन्तवक्र को भी परास्त किया और उसे कर देने वाला बनाकर फिर उसी राज्य पर प्रतिष्ठित कर दिया। इसके बाद राजा सुकुमार तथा सुमित्र को वश में किया। इसी प्रकार अपर मत्स्यों और लुटेरों पर भी विजय प्राप्त की। तदनन्तर निषाद देश तथा पर्वत प्रवर गोश्रृंग को जीतकर बुद्धिमान सहदेव ने राजा श्रेणिमान् को वेगपूर्वक परास्त किया। फिर नरराष्ट्र को जीतकर राजा कुन्तिभोज पर धावा किया। परंतु कुन्तिभोज ने प्रसन्नता के साथ ही उसका शासन स्वीकार कर लिया। इसके बाद चर्मण्वती के तट पर सहदेव ने जम्भक के पुत्र को देखा, जिसे पूर्ववैरी वासुदेव ने जीवित छोड़ दिया था। भारत! उस जम्भपुत्र ने सहदेव के साथ घोर संग्राम किया, पंरतु सहदेव उसे युद्ध में जीतकर दक्षिण दिशा की ओर बढ़ गये। वहाँ महाबली माद्रीकुमार ने सेक और अपरसेक देशों पर विजय पायी और उन सबसे नाना प्रकार के रत्न भेंट में लिये।

तत्पश्चात सेकाधिपति को साथ ले उन्होंने नर्मदा की और प्रस्थान किया। अश्विनीकुमार के पुत्र प्रतापी सहदेव ने वहाँ युद्ध में विशाल सेना से घिरे हुए अवन्ती के राजकुमार विन्द और अनुविन्द को परास्त किया। वहाँ से रत्नों की भेंट लेकर वे भोजकट नगर में गये। अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होने वाले राजन! वहाँ दो दिनों तक युद्ध होता रहा। माद्रीनन्दन ने उस संग्राम में दुर्धर्ष वीर भीष्म को परास्त करके कोसलाधिपति, वेधानदी के राजाओं को भी समर में पराजित किया। तत्पश्चात नाटकेयों और हेरम्बकों को भी युद्ध में हाराया। महाबली पाण्डुनन्दन सहदेव ने मारुध तथा रम्याग्राम को बलपूर्वक परास्त करके नाचीन, अर्बुक तथा समस्त वनेचर राजाओं को जीत लिया। तदनन्तर महाबली माद्रीकुमार ने राजा वाताधिप को वश में किया। फिर पुलिन्दों को संग्राम में हराकर नकुल के छोटे भाई सहदेव दक्षिण दिशा में और आगे बढ़ गये।

तत्पश्चात उन्होंने पाण्ड्य नरेश के साथ एक दिन युद्ध किया। उन्हें जीतकर महाबाहु सहदेव दक्षिणापथ की ओर गये और लोक विख्यात किष्किन्धा नामक गुफा में जा पहुँचे। वहाँ वानरराज मैन्द और द्विविद के साथ उन्होंने सात दिनों तक युद्ध किया, किंतु उन दोनों का कुछ बिगाड़ न हो सका। तब वे दोनों महात्मा वानर अत्यन्त प्रसन्न हो सहदेव से प्रेमपर्वूक बोले- ‘पाण्डवप्रवर! तुम सब प्रकार के रत्नों की भेंट लेकर जाओ। परम बुद्धिमान धर्मराज के कार्य में कोई विघ्न नहीं पड़ना चाहिये’। तदनन्तर वे नरश्रेष्ठ वहाँ से रत्नों की भेंंट लेकर माहिष्मती पुरी को गये और वहाँ राजा नील के[1] साथ घोर युद्ध किया। शत्रुवीरों का नाश करने वाले पाण्डुपुत्र सहदेव बड़ेे प्रतापी थे। उनसे राजा नील का जो महान युद्ध हुआ, वह कायरों को भयभीत करने वाला, सेनाओं का विनाशक और प्राणों को संशय में डालने वाला था। भगवान अग्निदेव राजा नील की सहायता कर रहे थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह इक्ष्वाकुवंशीय दुर्जय का पुत्र था। इसका दूसरा नाम दुर्योधन था। यह राजा बड़ा धर्मात्मा था। इसकी कथा अनुशासन पर्व के दूसरे अध्याय में आती है।

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