महाभारत सभा पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-12

अष्टादश (18) अध्‍याय: सभा पर्व (राजसूयारम्भ पर्व)

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महाभारत: सभा पर्व: अष्टादश अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


जरा राक्षसी का अपना परिचय देना और उसी के नाम पर बालक का नामकरण होना

राक्षसी ने कहा- राजेन्द्र! तुम्हारा कल्याण हो। मेरा नाम जरा है। मैं इच्छानुसार रूप धारण करने वाली राक्षसी हूँ और तुम्हारे घर में पूजित हो सुखपूर्वक रहती चली आयी हूँ। मैं मनुष्यों के घर-घर में सदा मौजूद रहती हूँ। कहने को तो मैं राक्षसी ही हूँ ; किंतु पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने गृहदेवी के नाम से मेरी सृष्टि की थी। और उन्होंने मुझे दानवों के विनाश के लिये नियुक्त किया था। मैं दिव्य रूप धारण करने वाली हूँ। जो अपने घर की दीवार पर मुझे अनेक पुत्रों सहित युवती स्त्री के रूप में भक्तिपूर्वक लिखता है (मेरा चित्र अंकित करता है), उसके घर में सदा वृद्धि होती है; अन्यथा उसे हानि उठानी पड़ती है। प्रभो! मैं तुम्हारे घर में रहकर सदा पूजित होती चली आयी हूँ। एवं तुम्हारे घर की दीवारों पर मेरा ऐसा चित्र अंकित किया गया है, जिसमें मैं अनेक पुत्रों से घिरी हुई खड़ी हूँ। उस चित्र के रूप में मेरा गन्ध, पुष्प, धूप और भक्ष्य-भोज्य पदार्थों द्वारा भलीभाँति पूजन होता आ रहा है। अतः मैं उस पूजन के बदले तुम्हारा कोई उपकार करने की बात सदा सोचती रहती थी।

धर्मात्मन्! मैंने तुम्हारे पुत्र के शरीर के इन दोनों टुकड़ों को देखा और दोनों को जोड़ दिया। महाराज! दैववश तुम्हारे भाग्य से ही उन टुकड़ों के जुड़ने से यह राजकुमार प्रकट हो गया है। मैं तो इसमें केवल निमित्तमात्र बन गयी हूँ। राजन्! अब इस बालक के लिये जो आवश्यक संस्कार हैं, उन्हें करो। यह इस संसार में मेरे ही नाम से विख्यात होगा।। मुझमें सुमेरु पर्वत को भी निगल जाने की शक्ति है; फिर तुम्हारे इस बच्चे को खा जाना कौन बड़ी बात है? किंतु तुम्हारे घर में जो मेरी भली-भाँति पूजा होती आयी है, उसी से संतुष्ट होकर मैंने तुम्हें यह बालक समर्पित किया है।

श्रीकृष्ण कहते हैं- राजन्! ऐसा कहकर जरा राक्षसी वहीं अन्तर्धान हो गयी और राजा उस बालक को लेकर अपने महल में चले आये। उस समय राजा ने उस बालक के जातकर्म आदि सभी आवश्यक संस्कार सम्पन्न किये और मगध देश में जरा राक्षसी (गृहदेवी) के पूजन का महान् उत्सव मनाने की आज्ञा दी। ब्रह्मा जी के समान प्रभावशाली राजा बृहद्रथ ने उस बालक का नाम रखते हुए कहा- ‘इसको जरा ने संधित किया (जोड़ा) है, इसलिये इसका नाम जरासंध होगा’। मगधराज का वह महातेजस्वी बालक माता-पिता को आनन्द प्रदान करते हुए आकार और बल से सम्पन्न हो घी की आहुति दी आने से प्रज्वलित हुई अग्नि और शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भाँति दिनों-दिन बढ़ने लगा।


इस प्रकार श्रीमहाभारत सभापर्व अन्तर्गत राजसूयारम्भ पर्व में जरासंध की उत्पत्ति-विषयक अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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