महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 95 श्लोक 16-22

पञ्चनवतितम (95) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पञ्चनवतितम अध्याय: श्लोक 16-22 का हिन्दी अनुवाद

वह तो दुष्टों का काम है। श्रेष्ठ पुरुष को तो दुष्टो पर भी धर्म से ही विजय पानी चाहिये। धर्मपूर्वक युद्ध करते हुए मर जाना भी अच्छा है; परंतु पाप कर्म के द्वारा विजय पाना अच्छा नहीं है। राजन! जैसे पृथ्वी में बोये हुए बीज का फल तत्काल नहीं मिलता, उसी प्रकार किये हुए पाप का भी फल तुरंत नहीं मिलता है; परंतु जब वह फल प्राप्त होता है, तब मूल और शाखा दोनों को जलाकर भस्म कर देता है। पापी मनुष्य पाप कर्म के द्वारा धन पाकर हर्ष से खिल उठता है। वह पापी चोरी से ही बढ़ता हुआ पाप में आसक्त हो जाता है और यह समझकर कि धर्म है ही नहीं, पवित्रात्मा पुरुषों की हँसी उड़ाता है।

धर्म में उसकी तनिक भी श्रद्धा नहीं रह जाती और पाप के ही द्वार वह विनाश के मुख में जा पड़ता है। वह अपने को देवताओं सा अजर-अमर मानता है; परंतु उसे वरुण के पाशोंमें बँधना पड़ता है। जैसे चमड़े की थैली हवा भरने से फूल जाती है, वैसे ही पापी भी पाप से फूल उठता है। वह पुण्य कर्म में कभी प्रवृत्त ही नहीं होता है, तदनन्तर जैसे नदी के तटपर खड़ा हुआ वृक्ष वहाँ से जड़सहित उखड़कर नदीं में बह जाता है, उसी प्रकार वह पापी भी समूल नष्ट हो जाता है। पत्थर पर पटके हुए घडे़ के समान उसके टूक-टूक हो जाते हैं और सभी लोग उसकी निन्दा करते हैं; अतः राजा को चाहिये कि वह धर्मपूर्वक ही धन और विजय प्राप्त करने की इच्छा करे।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में विजयाभिलाषी राजा का बर्तावविषयक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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