महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 80 श्लोक 1-12

अशीतितम (80) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: अशीतितम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद
राजा के लिये मित्र और अमित्र की पहचान तथा उन सबके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव का और मन्त्री के लक्षणों का वर्णन


युधिष्ठिर ने पूछा-पितामह! जो छोटे-से-छोटा काम है, उसे भी बिना किसी की सहायता के अकेले मनुष्य के द्वारा किया जाना कठिन हो जाता हैं। फिर राजा दूसरे की सहायता के बिना महान् राज्य का सुचालन कैसे कर सकता है? अतः राजा की सहायता के लिये जो सचिव (मन्त्री) हो, उसका स्वभाव और आचरण कैसा होना चाहिये? राजा कैसे मन्त्री पर विश्वास करे और कैसे पर न करे? भीष्मजी ने कहा-राजन! राजा के सहायक या मित्र चार प्रकार के होते हैं-1-सहार्थं 2-भजमान 3-सहज और 4-कृत्रिम[1] इनके सिवा, राजा का एक पाँचवाँ मित्र धर्मात्मा पुरुष होता है वह किसी एक का पक्षपाती नहीं होता है और न दोनों पक्षों से वेतन लेकर कपटपूर्वक दोनों का ही मित्र बना रहता है।
जिस पक्ष में धर्म होता है, उसी ओर वह भी हो जाता है अथवा जो धर्मपरायण राजा है, वही उसका आश्रय ग्रहण कर लेता है। ऐसे धर्मात्मा पुरुष को जो कार्यं न रूचे, वह उसके सामने नहीं प्रकाशित करना चाहिये; क्योंकि विजय की इच्छा रखने वाले कभी धर्ममार्ग से चलते हैं और कभी अधर्ममार्ग से। उपर्युक्त चार प्रकार के मित्रों में से भजमान और सहज- ये बीचवाले दो मित्र श्रेष्ठ समझे जाते है, किंतु शेष दो की ओर से सदा सशग रहना चाहिये। वास्तव में तो अपने कार्य को ही दृष्टि में रखकर सभी प्रकार के मित्रों से सदा सतर्क रहना चाहिये। राजा को अपने मित्रों की रक्षा में कभी असावधानी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि असावधान राजा का सभी लोग तिरस्कार करते हैं। बुरा मनुष्य भला और भला मनुष्य बुरा हो जाया करता है। शत्रु भी मित्र बन जाता है और मित्र भी बिगड़ जाता है; क्योंकि मनुष्य का चित्त सदैव एक -सा नहीं रहता। अतः उसपर किसी भी समय कोई कैसे विश्वास करेगा? इसलिये जो प्रधान कार्य हो उसे अपनी आँखों के सामने पूरा कर देनी चाहिये। किसी पर भी किया हुआ अत्यन्त विश्वास धर्म और अर्थ दोनों का नाश करने वाला होता है और सर्वत्र अविश्वास करना भी मृत्यु से बढ़कर है। दूसरों पर किया हुआ पूरा-पूरा विश्वास अकाल मृत्यु के सामन है; क्योंकि अधिक विश्वास करने वाला मनुष्य भारी विपत्ति में पड़ जाता है। वह जिसपर विश्वास करता है, उसी की इच्छा पर उसका जीवन निर्भर होता है। इसलिये राजा को कुछ चुने हुए लोगों पर विश्वास तो करना चाहिये पर उनकी ओर से सशग भी रहना चाहिये। तात! यही सनातन नीति की गति है। इसे सदा दृष्टि में रखना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सहार्थ मित्र उनको कहते है, जो किसी शर्त पर एक दूसरे की सहायता के लिये मित्रता करते हैं। अमुक शत्रु पर हम दोनों मिलकर चढाई करें, विजय होने पर दोनों उसके राज्य को आधा आधा बाँट लेंगे- इत्यादि शर्तें सहार्थ मित्रों में होती है। जिनके साथ परम्परागत वंशसम्बन्ध से मित्रता हो, वे भजमान कहलाते है। जन्म से ही साथ रहने से अथवा घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण जिनमें परस्पर स्वाभाविक मैत्री हो जाती है वे सहज मित्र कहे गये है; और धन आदि देकर अपनाये हुए लोग कृत्रिम मित्र कहलाते है।

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