महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 5 श्लोक 1-15

पंचम (5) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पंचम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


कर्ण के बल और पराक्रम का वर्णन, उसके द्वारा जरासंध की पराजय और जरासंध का कर्ण को अंग देश में मालिनी नगरी का राज्य प्रदान करना

नारद जी कहते हैं- राजन्! कर्ण के बल की ख्याति सुनकर मगधदेश के राजा जरासंध ने द्वैरथ युद्ध के लिये उसे ललकारा। वे दोनों ही दिव्यास्त्रों के ज्ञाता थे। उन दोनों में युद्ध आरम्भ हो गया। वे रणभूमि में एक दूसरे पर नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे। दोनों के ही बाण क्षीण हो गये, धनुष कट गये और तलवारों के टुकड़े-टुकड़े हो गये। तब वे दोनों बलशाली वीर पृथ्वी पर खड़े हो भुजाओं द्वारा मल्लयुद्ध करने लगे। कर्ण ने बाहुकण्टक युद्ध के द्वारा जरा नामक राक्षसी के जोडे़ हुए युद्ध परायण जरासंध के शरीर की संधि को चीरना आरम्भ किया।[1] राजा जरासंध ने अपने शरीर के उस विकार को देखकर बैरभाव को दूर हटा दिया और कर्ण से कहा- 'मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। साथ ही उसने प्रसन्नतापूर्वक कर्ण को अंगदेश की मालिनी नगरी दे दी। नरश्रेष्ठ! शत्रु विजयी कर्ण तभी से अंगदेश का राजा हो गया था। इसके बाद दुर्योधन की अनुमति से शत्रु- सैन्यसंहारी कर्ण चम्पा नगरी- चम्पारन का भी पालन करने लगा। यह सब तो तुम्हें भी ज्ञात ही है। इस प्रकार कर्ण अपने शस्त्रों के प्रताप से समस्त भूमण्डल में विख्यात हो गया। एक दिन देवराज इन्द्र ने तुम लोगों के हित के लिये कर्ण से उसके कवच और कुण्डल मांगे। देवमाया से मोहित हुए कर्ण ने अपने शरीर के साथ ही उत्पन्न हुए दोनों दिव्य कुण्डलों और कवच को भी इन्द्र के हाथ में दे दिया।

इस प्रकार जन्म के साथ ही उत्पन्न हुए कवच और कुण्डलों से हीन हो जाने पर कर्ण को अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण के देखते-देखते मारा था। एक तो उसे अग्निहोत्री ब्राह्मण तथा महात्मा परशुराम जी के शाप मिले थे। दूसरे, उसने स्वयं भी कुन्ती को अन्य चार भाइयों की रक्षा के लिये वरदान दिया था। तीसरे, इन्द्र ने माया करके उसके कवच-कुण्डल ले लिये। चौथे, महारथियों की गणना करते समय भीष्म जी ने अपमानपूर्वक उसे बार-बार अर्धरथी कहा था। पाचवें, शल्य की ओर से उसके तेज को नष्ट करने का प्रयास किया गया था और छठे, भगवान श्रीकृष्ण की नीति भी कर्ण के प्रतिकूल काम कर रही थी- इन सब कारणों से वह पराजित हुआ। इधर गाण्डीवधारी अर्जुन ने रुद्र, देवराज इन्द्र, यम, वरुण, कुबेर, द्रोणाचार्य तथा महात्मा कृप के दिये हुए दिव्यास्त्र प्राप्त कर लिये थे; इसीलिये युद्ध में उन्होंने सूर्य के समान तेजस्वी वैकर्तन कर्ण का वध किया। पुरुषोत्तम युधिष्ठिर! इस प्रकार तुम्हारे भाई कर्ण को शाप तो मिला ही था, बहुत लोगों ने उसे ठग भी लिया था, तथापि वह युद्ध में मारा गया है, इसलिये शोक करने के योग्य नहीं है।


इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में कर्ण के पराक्रम कथन नामक पाचवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जहाँ बलवान योद्धा अपने प्रतिद्वंद्वी को दुर्बल पा उसकी एक पिण्डली को पौर से दबाकरा दूसरी को ऊपर उठा सारे शरीर को बीच से चीर डालता है, वह बाहुकण्टक नामक युद्ध कहा गया है। जैसा कि निम्नाकित वचन से सूचित होता है-
    'एक जंघा पदाऽऽक्रम्य परामुद्यम्य पाट्यते। केतकीपत्रवच्छत्रोर्युद्धं तद्‌ बाहुकंण्टकम्‌।।' इति

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