महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 50 श्लोक 20-38

पंचाशत्तम (50) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: पंचाशत्तम अध्याय: श्लोक 20-38 का हिन्दी अनुवाद

आप एक समृद्धिशाली राज्य के अधिकारी थे, आपके संपूर्ण अंग ठीक थे, किसी अंग में कोई न्यूनता नहीं थी; आपको कोई रोग भी नहीं था और आप हजारों स्त्रियों के बीच में रहतें थे, तो भी मैं आपको ऊर्ध्वरेता (अखण्ड़ ब्रह्मचर्य सम्पन्न)) ही देखता हूँ। तात  !पृथ्वीनाथ! मैंने तीनों लोकों में सत्यवादी, एकमात्र धर्म में तत्पर, शूरवीर, महापराक्रमी तथा बाणशय्या पर शयन करनें वाले आप शान्तनुनन्दन भीष्म के सिवाय दूसरे किसी ऐसे प्राणी को ऐसा नहीं सुना है, जिसने शरीर के लिये स्वभावसिद्ध मृत्यु को अपनी तपस्या से रोक दिया हों। सत्य, तप, दान और यज्ञ के अनुष्ठान में वेद, धनुर्वेद तथा नीतिशास्त्र के ज्ञान में, प्रजा के पालन में, कोमलतापूर्ण बर्ताव, बाहर भीतर की शुद्धि, मन और इन्द्रियों के संयम तथा सम्पूर्ण प्राणियों के हितसाधन में आपके समान मैंने दूसरे किसी महारथी को नहीं सुना है। आप सम्पूर्ण देवता, गन्धर्व, असुर, यक्ष और राक्षसों को एकमात्र रथ के द्वारा ही जीत सकते थे, इसमें संशय नहीं है। महाबाहो भीष्म! आप वसुओं में वासव ( इन्द्र ) के समान है। ब्राह्मणों ने सदा आपको आठ वसुओं के अंश से उत्पन्न नवाँ वसु बताया है। आपके समान गुणों में कोई नहीं है। पुरुषवर! आप कैसे है और क्या हैं, यह मैं जानता हूँ। आप पुरुषों में उत्तम और अपनी शक्ति के लिये देवताओं में भी विख्यात है। नरेन्द्र! मनुष्यों में आपके समान गुणों से युक्त पुरुष इस पृथ्वी पर न तो मैंने कहीं देखा है और न सुना ही है। राजन्! आप अपने सम्पूर्ण गुणों के द्वारा तो देवताओं से भी बढकर है तथा तपस्या के द्वारा चराचर लोकों की भी सृष्टि कर सकते है। फिर अपने लिये उत्तम गुणसम्पन्न लोकों की सृष्टि करना आपके लिये कौन बडी बात है? अतः भीष्म! आप से यह निवेदन है कि ये ज्येष्ठ पाण्डव अपने कुटुम्बीजनों के वध से बहुत संतप्त हो रहे है। आप इनका शोक दूर करें। भारत! शास्त्रों में चारों वर्णों और आश्रमों के लिये जो जो धर्म बताये गये हैं, वे सब आपको विदित है। चारों विद्याओं में जिन धर्मां का प्रतिपादन किया गया है तथा चारों श्रोताओं के जो कर्तव्य बताये गये हैं, वे भी आपको ज्ञात है। गंगानन्दन! योग और सांख्य में जो सनातन धर्म नियत है तथा चारों वर्णों के लिये जो अविरोधी धर्म बताया गया है, जिसका सभी लोग सेवन करते है, वह सब आपको व्याख्यासहित ज्ञात है। विलोम क्रम से उत्पन्न हुए वर्णसंकरों का जो धर्म है, उससे भी आप अपरिचित नहीं है। देश, जाति और कुल के धर्मों का क्या लक्षण है, उसे आप अच्छी तरह जानते हैं। वेदों में प्रतिपादित तथा शिष्ट पुरुषों द्वारा कथित धर्मों को भी आप सदा से ही जानते है। इतिहास और पुराणों के अर्थ आपको पूर्णरूप से ज्ञात है। सारा धर्मशास्त्र सदा आपके मन में स्थित है। पुरुषप्रवर! स्ंसार में जो कोई संदेहग्रस्त विषय हैं, उनका समाधान करने वाला आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है। नरेन्द्र! पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर के हद्य में जो शोक उमड़ आया है, उसे आप अपनी बुद्धि के द्वारा दूर कीजिये। आप जैसे उत्तम बुद्धि के विस्तार वाले पुरुष ही मोहग्रस्त मनुष्य के शोकसंताप को दूर करके उसे शान्ति दे सकते है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शांतिपर्वं के अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्व में श्रीकृष्णवाक्यविषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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