महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 359 श्लोक 1-16

एकोनषष्ट्यधिकत्रिशततम (360) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनषष्ट्यधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


नागराज का घर लौटना, पथ्त्नी के साथ उनकी धर्मविषयक बातचीत तथा पत्नी का उनसे ब्राह्मण को दर्शन देने के लिये अनुरोध

भीष्मजी कहते हैं - युधिष्ठिर! तदनन्तर कई दिनों तक समय पूरा होने पर नागराज का काम पूरा हो गया, तब सूर्यदेव की आज्ञापाकर वे अपने घर को लौटे। वहाँ नागराज की पत्नी पैर धोने के लिये जल-पाद्य आदि उत्तम सामग्रियों के साथ पति की सेवा में उपस्थित हुई। अपनी साध्वी पत्नी को समीप आयी देख नागराज ने पूछा-। ‘कल्याणि! मेरे द्वारा बतायी हुई उपयुक्त विधि से युक्त हो तुम मेरे ही समान देवताओं और अतिथियों के पूजन में तत्पर तो रही हो न ? ‘सुन्दरि! मेरे वियोग ने तुम्हें शिथिल तो नहीं कर दिया था ? तुम्हारी स्त्री-बुद्धि के कारण कहीं धर्म की मर्यादा असफल या अरक्षित तो नहीं रह गयी और उसके कारण तुम धर्म-पालन से विमुख या दूर तो नहीं हो गयी ?

नागपत्नी ने कहा - शिष्यों का धर्म है गुरु की सेवा करना, ब्राह्मणों का धर्म है वेदों को धारण करना, सेवकों का धर्म है स्वामी की आज्ञा का पालन तथा राजा का धर्म है प्रजावर्ग का सतत संरक्षण। इस जगत् में समस्त प्राणियों की रक्षा करना क्षत्रिय-धर्म बताया जाता है। अतिथि-सत्कार के साथ-साथ यज्ञों का अनुष्ठान करना वैश्यों का धर्म कहा गया है। नागराज! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- तीनों वर्णों की सेवा करना शूद्र का कर्तव्य बताया गया है और समस्त प्राणियों के हित की इच्छा रखना गृहस्थ का धर्म है। नियमित आहार का सेवन और विधिवत् व्रत का पालन सबका धर्म है। धर्म-पालन के सम्बन्ध से इन्द्रियों की विशेष रूप से शुद्धि होती है। ‘मैं किसका हूँ ? कहाँ से आया हूँ, मेरा कौन है , तथा इस जीवन का प्रयोजन क्या है ?’ इत्यादि बातों का सदा विचार करते हुए ही संन्यासी को संन्यास-आश्रम में रहना चाहिये। नागराज! पत्नी के लिये पातिव्रत्य ही सबसे बडत्रा धर्म कहा जाता है। आपके उपदेश से अपने उस धर्म को मैं अचछी तरह समझती हूँ। जब आन- मेरे पतिदेव सदा धर्म पर स्थित रहते हैं, तब धर्म को जानती हूई भी मैं कैसे सन्मार्ग का त्याग करके कुमार्ग पर पैर रखूँगी ? महाभाग! देवताओं की आराधना रूप धर्मचर्या मे कोई कमी नहीं आयी है, अतिथियों के सत्कार में भी मैं सदा आलस्य छोड़कर लगी रही हूँ। परंतु आज पंद्रह दिन से एक ब्राह्मण देवता यहाँ पधारे हुण् हैं। वे मुझसे अपना कोई कार्य नहीं बता रहे हैं। केवल आपका दर्शन चाहते हैं। वे कठोर व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण वेदों का पारायण करते हुए आपके दर्शन के लिये उत्युक हो गोमती के किनारे बैइे हुए हैं। नागराज! उन्होंने मुझसे पहले सच्ची प्रतिज्ञा करा ली है कि नागराज के आते ही तुम उन्हें मेरे पास भेज देना। महाप्रज्ञ नागराज! मेरी यह बात सुनकर अब आपको वहाँ जाना चाहिये और ब्राह्मण देवता को दर्शन देना चाहिये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शानितपर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्व में उन्छवृत्ति का उपाख्यान विषयक तीन सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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