महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 351 श्लोक 1-15

एकञ्चाशदधिकत्रिशततम (351) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: एकञ्चाशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

ब्रह्मा और रुद्र के संवाद में नारायण की महिमा का विशेष रूप से वर्णन

ब्रह्माजी ने कहा - बेटा! य िविराट् पुरुष जिस प्रकार सनातन, अविकारी, अविनाशी, अप्रमेश्, सर्वव्यापी बताया जाता है, वह सुनो। साधु शिरोमणें! तुम, मैं अथवा दूसरे लोग भी उस सगुण-निर्गुण विश्वात्मा पुरुष को इन चर्म चक्षुओं से नहीं देख सकते। वे ज्ञान से ही देखने योग्य माने गये हैं। वे स्थूल, सुक्ष्म और कारण तीनों शरीर से रहित होकर भी सम्पूर्ण शरीर में निवास करते हैं और उन शरीरों में रहते हुए भी कभी उनके कर्मों में लिपत नहीं होते हैं। वे मेरे, तुम्हारे तथा दूसरे जो देहधारी संज्ञावाले जीव हैं, उनके भी अन्तरात्मा हैं। सबके साक्षी वे पुरुषोत्तम श्रीहरि कहीं किसी के द्वारा भी पकड़ में नहीं आते। सम्पूर्ण विश्व ही उनका मसतक, भुजा, पैर, नेत्र और नासिका है। वे स्वच्छन्द विचरने वाले एकमात्र पुरुषोत्तम सम्पूर्ण क्षेत्रों में सुखपूर्वक विचरण करते हैं।। वे योगात्मा श्रीहरि क्षेत्रसंज्ञक शरीरों को और शुभाशुभ कर्मरूप उनके कारण को भी जानते हैं? इसलिये क्षेत्रज्ञ कहलाते हैं। समसत प्राणियों में से कोई भी यह नहीं जान पाता कि वे किस तरह शरीरों में आते और जाते हैं ? मैं क्रमशः सांख्य और योग की विधि से उनकी गति का चिनतन करता हूँ; परंतु उस उत्कृष्ट गति को समझ नहीं पाता। तथापि मुझे जैसा अनुभव है, उसके अनुसार उस सनातन पुरुष का वर्णन करता हूँ। उनमें एकतत्त्व भी है और महत्त्व भ; अतः एकतात्र वे ही पुरुष माने गये हैं। एक सनातन श्रीहरि ही महापुरुष नाम धारण करते हैं। अग्नि ऐ की है; परंतु वह अनेक रूपों में प्रज्वलित एवं प्रकाशित होती है। एक ही सूर्य सारे जगत् को ताप एवं प्रकाश देते हैं। तप अनेक प्रकार का है; परंतु उसका मूल एक ही है। एक ही वायु इस जगत् में विविध रूप से प्रवाहित होती है तथा समसत जलों की उत्पत्ति और लय का स्थान समुद्र भी एक ही है। उसी प्रकार वह निर्गुण विश्वरूप पुरुष भी एक ही है। उसी निर्गुण पुरुष में सबका लय होता है। देह, इन्द्रिय आदि समस्त गुणमय पदार्थों की ममता छोड़कर शुभाशुभ कर्म को त्यागकर तथा सत्य और मिथ्या दोनों का परित्याग करके ही कोई साधक निर्गुण हो सकता है। जो चारों सुक्ष्म भावों से युक्त उस निर्गुण पुरुष को अचिन्त्य जानकर अहंकार शून्य होकर विचरण करता है, वही कल्याणमय परम पुरुष को प्राप्त होता है। इस प्रकार कुछ विद्वान् (अपने से भिन्न) परमात्मा को पाना चाहते हैं। कुद अपने से अभिन्न परमात्मा-एकात्मा को पाने की इच्छा रखते हैं तथा दूसरे विचारक केवन आतमा को ही जानना या पाना चाहते हैं। इनमें जो परमात्मा है, वह नित्य निर्गुण माना गया है। उसी को नारायण नाम से जानना चाहिये। वही सर्वात्मा पुरुष है। जैसे कमल का पत्ता पानी में रहकर भी उससे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार परमात्मा कर्मफलों से निर्लिप्त रहता है। परंतु जो कर्मों का कर्ता है एवं बन्धन और मोक्ष से सम्बन्ध जोड़ता है, वह जीवात्मा उससे भिन्न है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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