एकविंशत्यधिकत्रिशततम (321) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: एकविंशत्यधिकत्रिशततम अध्याय:
श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद
व्यासजी का अपने पुत्र शुकदेव को वैराग्य और धर्म पूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! पूर्वकाल में व्यास पुत्र शुकदेव को किस प्रकार वैराग्य प्राप्त हुआ था ? मैं यह सुनना चाहता हूँ। इस विषय में मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है। कुरुनन्दन! इसके शिवा आप मुझे व्यक्त और अव्यक्त तत्वों का बुद्धि द्वारा निश्चित किया हुआ स्वरूप बतलाइये तथा अजन्मा भगवान् नारायण का जो चरित्र है, उसे भी सुनाने की कृपा करें। भीष्मजी कहते हैं—राजन्! पुत्र शुकदेव को साधारण लोगों की भाँति आचरण करते और सर्वथा निर्भय विचरते देख पिता श्रीव्यासजी ने उन्हें सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन कराया औ फिर यह उपदेश दिया। व्यासजी ने कहा—बेटा! तुम सदा धर्म का सेवन करते रहो और जितेन्द्रिय होकर कड़ी से कड़ी सर्दी, गर्मी, भूख-प्यास को सहन करते हुए प्राणवायु पर विजय प्राप्त करो। सत्य, सरलता, अक्रोध, दोषदर्शन का अभाव, इन्द्रिय-संयम तप, अहिंसा और दया आदि धर्मों का विधिपूर्वक पालन करो। सत्य पर डटे रहो तथा सब प्रकारकी वक्रता छोड़कर धर्म में अनुराग करो। देवताओं और अतिथियों का सत्कार करके जो अन्न बचे, उसी का प्राणरक्षा के लिये आस्वादन करो। बेटा! यह शरीर जल के फेन की तरह क्षणभंगुर है। इसमें जीव पक्षी की तरह बसा हुआ है और यह प्रियजनों का सहवास भी सदा रहने वाला नहीं है। फिर भी तुम क्यों सोये पड़े हो ? तुम्हारे शत्रु सर्वदा सावधान, जगे हुए, सर्वथा उद्यत और तुम्हारे छ्रिदों को देखने में लगे हुए हैं; परंतु तुम अभी बालक हो, इसलिये समझ नहीं रह हो। तुम्हारी आयु के दिन गिने जा रहे हैं। आयु क्षीण होती जा रही है और जीवन मानो कहीं लिखा जा रहा है (समाप्त हो रहा है)। फिर तुम उठकर भागते क्यों नहीं हो ? (शीघ्रतापूर्वक कर्तव्यपालन में लग क्यों नहीं जाते हो ?) अत्यन्त नास्तिक मनुष्य केवल इस लोक के स्वार्थ को चाहते हुए शरीर में मांस और रक्त को बढ़ाने-वाली चेष्टा ही करते हैं। पारलौकिक कार्यों की ओर से तो वे सदा सोये ही रहते हैं। जो बुद्धि के व्यामोह में डूबे हुए मनुष्य धर्म से द्वेष करते हैं, वे सदा कुमार्ग से ही चलते हैं। उनकी तो बात ही क्यों है, उनके अनुयायियों को भी कष्ट भोगना पड़ता है। इसलिये जो महान् धर्मबल से सम्पन्न महात्मा पुरुष संतुष्ट और श्रुतिपरायण होकर सर्वथा धर्मपथ पर ही आरूढ़ रहते हैं, तुम उन्हीं की सेवामें रहो और उन्हीं से अपना कर्तव्य पूछो। उन धर्मदर्शी विद्वानों का मत जानकर तुम अपनी श्रेष्ठ बुद्धि के द्वारा अपने कुपथगामी मन को काबू में करो। जिसकी केवल वर्तमान सुख पर ही दृष्टि रहती है, उस बुद्धि के द्वारा भावी परिणाम को बहुत दूर जानकर जो निर्भय रहते और सब प्रकार के अभक्ष्य पदार्थो को खाते रहते हैं, वे बुद्धिहीन मनुष्य इस कर्मभूमि के महत्तव को नहीं देख पाते हैं। तुम धर्मरूपी सीढ़ी को पाकर धीरे-धीरे उस पर चढ़ते जाओ। अभी तो तुम रेशम के कीड़े की तरह अपने-आपको वासनाओं के जाल से ही लपेटते जा रहे हो, तुम्हें चेत नहीं हो रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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