द्वादशाधिकत्रिशततम (312) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: द्वादशाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
संहार क्रम का वर्णन याज्ञवल्क्य जी कहते है— राजन्! अब मेरे द्वारा क्रमश: बतायी हुई तत्वों की सम्पूर्ण संख्या, कालसंख्या तथा तत्वों के संहार की वार्ता सुनो। आदि और अन्त से रहित नित्य अक्षर स्वरूप ब्रह्माजी किस प्रकार बारंबार प्राणियों की सृष्टि और संहार करते हैं — यह बता रहा हूँ, ध्यान देकर सुनो। भगवान् ब्रह्माजी जब देखते हैं कि मेरे दिन का अन्त हो गया, तब उनके मन में रात को शयन करने की इच्छा होती है, इसलिये वे अहंकार के अभिमानी देवता रुद्र को संहार के लिये करते हैं। उस समय वे रुद्रदेव ब्रह्माजी से प्रेरित होकर प्रचण्ड सूर्य का रूप धारण करते हैं और अपने को बारह रूपों में अभिव्यक्त करके अग्नि के समान प्रज्वलित हो उठते हैं। भूपाल! नरेश्वर! फिर वे अपने तेज से जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उदिभज्ज–इन चार प्रकार के प्राणियों से भरे हुए सम्पूर्ण जगत् को शीघ्र ही भस्म कर डालते हैं। पलक मारते-मारते इस समस्त चराचर जगत् का नाश हो जाता है और यह भूमि सब ओर से कछुए की पीठ की तरह प्रतीत होने लगती है। जगत् को दग्ध करने के बाद अमित बलवान् रुद्र इस अकेली बची हुई समूची पृथ्वी को शीघ्र ही जल के महान् प्रवाह में डुबो देते हैं । तदनन्तर कालाग्नि की लपट में पड़कर वह सारा जल सूख जाता है। राजेन्द्र! जल के नष्ट हो जाने पर आग अत्यन्त भयानक रूप धारण करती है और सब ओर बड़े जोर से प्रज्वलित होने लगती है। सम्पूर्ण भूतों को गर्मी पहुँचाने वाली तथा अत्यन्त प्रबल वेग से जलती हुई उस सात ज्वालाओं से युक्त आग को बलवान् वायुदेव अपने आठ रूपों में प्रकट होकर निगल जाते हैं और ऊपर–नीचे तथा बीच में सब ओर प्रवाहित होने लगते हैं। तदनन्तर आकाश उस अत्यन्त प्रबल एवं भयंकर वायु को स्वयं ही ग्रस लेता है। फिर गर्जन-तर्जन करने वाले उस आकाश को उससे भी अधिक शक्तिशाली मन अपना ग्रास बना लेता है। क्रमश: भूतात्मा और प्रजापतिस्वरूप अहंकार मन को अपने में लीन कर लेता है। तत्पश्चात् भूत भविष्य और वर्त्तमान का ज्ञाता बुद्धिस्वरूप महत्तत्त्व अहंकार को अपना ग्रास बना लेता है। इसके बाद, जिनके सब और हाथ-पैर हैं, सब ओर नेत्र मस्तक ओर मुख हैं, सब और कान हैं तथा जो जगत् में सबको व्याप्त करके स्थित हैं, जो सम्पूर्ण भूतों के हृदय में अंगुष्ठपर्व के बराबर आकार धारण करके विराजमान हैं, अणिमा, लघिमा और प्राप्ति आदि ऐश्वर्य जिनके अधीन हैं, जो सबके नियन्ता, ज्योति:स्परूप, अविनाशी, कल्याणमय, प्रजा के स्वामी, अनन्त, महान् आत्मा और सर्वेश्वर हैं, वे परब्रह्मा परमात्मा उस अनुपम विश्वरूप बुद्धितत्व को अपने में लीन कर लेते हैं। तदनन्तर ह्रास और वृद्धि से रहित, अविनाशी और निर्विकार, सर्वस्वरूप परब्रह्मा ही शेष रह जाता है। उसी ने भूत, भविष्य और वर्त्तमान की सृष्टि करने वाले निष्पाप ब्रह्मा की भी सृष्टि की है। राजेन्द्र! इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष संहारक्रम का यथावत् रूप से वर्णन किया है। अब तुम अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव का वर्णन सुनो।
इस प्रकार श्री महाभारत शान्ति पर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्म पर्व में याज्ञवल्क्य और जनक का संवाद विषयक तीन सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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