महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 309 श्लोक 15-25

नवाधिकत्रिशततम (309) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: नवाधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद


अपनी ही जाति के उत्तम कुल में उत्‍पन्‍न हुई तथा पति द्वारा सम्‍मानित पतिव्रता स्‍त्री यहाँ उत्तम योनि मानी गयी है। अत: जिसका ऐसी माता से जन्‍म हुआ हो वह जन्‍म से शुद्ध है। ॠक्, यजुष् और समावेद का विद्वान् होकर सदा (यजन-याजन, अध्‍ययन-अध्‍यापन, दान और प्रतिग्रह इन) छ: कर्मों का अनुष्‍ठान करने वाला ब्राह्मण कर्म से शुद्ध एवं उत्‍तम पात्र बताया गया है। देश, काल, पात्र और कर्म विशेष पर विचार करने से एक ही कर्म भिन्‍न–भिन्‍न मनुष्‍य के लिये धर्म और अधर्मरूप हो जाता है। जैसे शरीर में थोड़ी-सी धूल लगी हुई हो तो मनुष्‍य उसे अनायास ही झाड़-पोंछकर दूर कर देता है; परंतु बहुत अधिक मैल बैठ जाय तो उसे बड़े प्रयत्‍न से दूर कर सकता है, उसी प्रकार थोड़ा पाप थोड़-से प्रयत्‍न से और महान् पाप महान् प्रायश्चित करने से दूर होता है। जैसे जिसने विरेचन के द्वारा अपने पेट को अच्‍छी तरह साफ कर लिया हो, वह मनुष्‍य यदि घी खाय तो वह उसके लिये दवा के समान लाभदायक होता है। उसी तरह जिसके सारे पाप-दोष दूर हो गये हैं, उसी के लिये धर्म परलोक में सुख देने वाला होता है। सभी प्राणियों के मन में शुभ अशुभ विचार उठते रहते हैं। मनुष्‍य को चाहिये कि वह चित्‍त को सदा अशुभ विचारों की ओर से हटाकर शुभ विचारों में ही लगाये। अपने वर्ण ओर आश्रम के अनुसार सब के द्वारा सब जगह किये जाने वाले सब प्रकार के कर्मों का आदर करो। तुम भी अपने धर्म के अनुसार जिस कर्म में तुम्‍हारा अनुराग हो, उसका इच्‍छानुसार पालन करते रहो। अधीरचित्‍त नरेश! धीरता का आश्रय लो। दुर्बुद्धे! बुद्धिमान् बनो। तुम सदा अशान्‍त रहत हो। अब से शान्‍त हो जाओ और अब तक मूर्खों के-से बर्ताव करते रहे, अब विद्वानों के समान आचरण करो। जो सत्‍पुरुषों का संग करता है, उसे उन्‍हीं के तेज या प्रताप से कोई ऐसा उपाय प्राप्‍त हो सकता है, जो इस लोक और परलोक में भी कल्‍याण करने वाला हो। उत्‍तम धृति (मन की स्थिरता) ही कल्‍याण का मूल है। राजर्षि महाभिष धृतिमान् न होने के कारण ही स्‍वर्ग से नीचे गिरे और राजा ययाति अपना पुण्‍य क्षीण हो जाने के बाद भी धृति के ही बल से उत्‍तम लोकों को प्राप्‍त हुए। राजन्! तपस्‍वी, धर्मात्‍मा एवं विद्वानों की सेवा करने से तुम्‍हें विशाल बुद्धि प्राप्‍त होगी, जिससे तुम कल्‍याण के भागी हो सकोगे। भीष्‍मजी कहते हैं—युधिष्ठिर! राजकुमार वसुमान् अच्‍छे स्‍वभाव से सम्‍पन्‍न था। उसने मुनि के उस उपदेश को सुनकर अपने मन को कामनाओं से हटा लिया और बुद्धि को धर्म में ही लगा दिया।

इस प्रकार श्री महाभारत शान्ति पर्व के अन्तर्गत मोक्षधर्म पर्व में जनकवंशो वसुमाय को उपदेशविषयक तीन सौ नवाँ अध्याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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