महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 283 श्लोक 1-20

त्र्यशीत्‍यधिकद्विशततम (283) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: त्र्यशीत्‍यधिकद्विशततम अध्याय श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

शिवजी द्वारा दक्ष यज्ञ का भंग और उनके क्रोध से ज्‍वर की उत्‍पत्ति तथा उसके विविध रूप

युधिष्ठिर ने पूछा- सम्‍पूर्ण शास्‍त्रों के ज्ञान में निपुण महाप्राज्ञ पितामह! देव! इस वृत्रवध के प्रसंग में मुझे कुछ पूछने की इच्‍छा हो रही है। निष्‍पाप जनेश्‍वर! आपने कहा है कि वृत्रासुर ज्‍वर से मोहित हो गया था, उसी अवस्‍था में इन्‍द्र ने अपने वज्र से मार डाला। महामते! प्रभो! यह ज्‍वर कैसे और कहाँ से उत्‍पन्‍न हुआ ? मैं ज्‍वर की उत्‍पत्ति का प्रसंग भलीभाँति सुनना चाहता हूँ। भीष्‍म जी ने कहा - राजन्! ज्‍वर की उत्‍पत्ति का यह वृतान्‍त सम्‍पूर्ण लोकों में प्रसिद्ध है, सुनो। भारत! यह प्रसंग जैसा है, उसे मैं विस्‍तारपूर्वक बता रहा हूँ। भरतनन्‍दन! महाराज! पूर्वकाल में सुमेरू पर्वत का ज्योतिष्क नाम से प्रसिद्ध एक शिखर था, जो सविता (सूर्य) देवता से संबंध रखने के कारण सावित्र कहलाता था। वह सब प्रकार के रत्‍नों से विभूषित, अप्रमेय, समस्‍त लोकों के लिये अगम्‍य और तीनों लोकों द्वारा पूजित था। सुवर्णमय धातु से विभूषित उस पर्वतशिखर के तटपर बैठे हुए महादेव जी उसी प्रकार अपूर्व शोभा पाते थे मानो किसी सुन्‍दर पर्यङक पर बैठे हों। वहीं प्रतिदिन उनके वामपार्श्‍व में रहकर गिरिराज नन्दिनी भगवती पार्वती भी अनुपम शोभा पाती थी। इसी प्रकार वहाँ बहुत-से महामनस्‍वी देवता, अमित तेजस्‍वी वसुगण, चिकित्‍सकों में श्रेष्‍ठ महामना अश्विनीकुमार, शंखनिधि, पद्मनिधि तथा उत्‍तम ॠद्धि के साथ गुह्यकों से घिरे हुए कैलासवासी यक्षपति प्रभुतासम्‍पन्‍न श्रीमान राजा कुबेर तथा महामुनि शुक्राचार्य- ये सभी परमात्‍मा महादेव जी की उपासना किया करते थे।

सनत्‍कुमार आदि महर्षि, अंगिरा आदि तथा अन्‍य देवर्षि, विश्‍वावसु गन्‍धर्व, नारद, पर्वत और अप्‍सराओं के अनेक समुदाय उस पर्वत पर महादेव जी की आराधना के लिये आया करते थे। वहाँ नाना प्रकार की सुगन्‍ध को फैलाने वाली, पवित्र, सुखद एवं मंगलमयी वायु चलती रहती थी। सभी ॠतुओं के फूलों से सुशोभित होने वाले खिले हुए वृक्ष उस शिखर की शोभा बढाते थे। भारत! तपस्‍या के धनी सिद्ध और विद्याधर भी वहाँ पशुपति महादेव जी की उपासना में तत्‍पर रहते थे। महाराज! अनेक रूप धारण करने वाले भूत, महाभयंकर राक्षस, महाबली और बहुत से रूप धारण करने वाले पिशाच, जो महादेवजी के अनुचर थे, वहाँ हर्ष में भरकर नाना प्रकार के अस्‍त्र-शस्‍त्र लिये खड़े रहते थे। वे सब-के-सब अग्नि के समान तेजस्‍वी थे।

महादेवजी की आज्ञा से भगवान नन्‍दी अपने तेज से देदीप्‍यमान हो हाथ में प्रज्‍वलित शूल लेकर वहाँ खड़े रहते थे। कुरुनन्‍दन! समस्‍त तीर्थों के जलों को लेकर प्रकट हुई सरिताओं में श्रेष्‍ठ गंगाजी वहाँ दिव्‍यरूप धारण करके देवाधिदेव महादेव जी की आराधना करती थीं। इस प्रकार देवताओं और देवर्षियों से पूजित होते हुए महातेजस्‍वी भगवान महादेव वहाँ नित्‍य विराजमान थे। कुछ काल के अनन्‍तर दक्ष नाम से प्रसिद्ध प्रजापति ने पूर्वोक्‍त शास्‍त्रीय विधान के अनुसार यज्ञ करने का संकल्‍प लेकर उसके लिये तैयारी आरम्‍भ कर दी। उस समय इन्‍द्र आदि सब देवताओं ने दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जाने के लिये परस्‍पर मिलकर निश्‍चय किया ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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