सप्तविंश (27) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तविंश अध्याय: श्लोक 20-33 का हिन्दी अनुवाद
वैशाम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय। अपने बन्धुजनों के शोक से विडल होकर युधिष्ठिर को ऐसी बातें करते देख मुनिवर व्यास जी ने उन्हें रोककर कहा- 'नहीं, ऐसा नहीं हो सकता'। व्यास जी ने बोले- महाराज! तुम बहुत शोक न करो। प्रभो! मैं पहले की कही हुई बात ही फिर दुहरा रहा हूँ। यह सब प्रारब्ध का ही खेल है। जैसे पानी में बुलबुले होते और मिट जाते हैं, उसी प्रकार संसार में उत्पन्न हुए प्राणियों के जो आपस में संयोग होते हैं, उनका अन्त निश्चय ही वियोग में होता है। सम्पूर्ण संग्रहों का अन्त विनाश है, सारी उन्नतियों का अन्त पतन है, संयोग का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है। आलस्य सुखरूप प्रतीत होता है, परंतु उसका अन्त दुःख है तथा कार्यदक्षता दुःखरूप प्रतीत होती है, परंतु उससे सुख का उदय होता है। इसके सिवा ऐश्वर्य, लक्ष्मी, लज्जा, घृति और कीर्ति- ये कार्यदक्ष पुरुष में ही निवास करती हैं, आलसी में नहीं। न तो सुहृद सुख देने में समर्थ हैं, न शत्रु दुःख देने में। इसी प्रकार न तो प्रजा धन दे सकती है और न धन सुख दे सकता है। कुन्तीनन्दन! नरेश्वर! विधाता ने जैसे कर्मों के लिये तुम्हारी सृष्टि की है, तुम उन्हीं का अनुष्ठान करो। उन्हीं से तुम्हें सिद्धि प्राप्त होगी। तुम कर्मों के (फल के) स्वामी या नियन्ता नहीं हो।
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्मानुशासन पर्व में व्यास-वाक्य-विषयक सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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