महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 27 श्लोक 1-19

सप्तविंश (27) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)

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महाभारत: शान्ति पर्व: सप्तविंश अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


युधिष्ठिर को शोकवश शरीर त्याग देने के लिये उद्यत देख व्यास जी का उन्हें उससे निवारण करके समझाना

युधिष्ठिर ने व्यास जी से कहा- मुनिश्रेष्ठ! इस युद्ध में बालक अभिमन्यु, द्रौपदी के पाँचों पुत्र, धृष्टद्युम्न, विराट, राजा द्रुपद, धर्मज्ञ, वृषसेन, चेदिराज धृष्टकेतु तथा नाना देशों के निवासी अन्यान्य नरेश भी वीरगति को प्राप्त हुए हैं। मैं जाति-भाइयों का घातक, राज्य का लोभी, अत्यन्त क्रूर और अपने वंश का विनाश करने वाला निकला, यही सब सोचकर मुझे शोक नहीं छोड़ रहा है और मैं अत्यन्त आतुर हो रहा हूँ। जिनकी गोदी में खेलता हुआ मैं लोटपोट हो जाता था, उन्हीं पितामह गंगानन्दन भीष्म जी को मैंने राज्य के लोभ से मरवा डाला। जब मैंने देखा कि अर्जुन के वज्रोपम बाणों से आह्त हो बूढे़ सिंह के समान मेरे उन्नतकाय पुरुष सिंह पितामह कम्पित हो रहे हैं और उन्हें चक्कर-सा आने लगा है, शिखण्डी उनकी ओर देख रहा है और उनका सारा शरीर बाणों से खचाखच भर गया है तो यह देखकर मेरे मन में बड़ी व्यथा हुई।

जो शत्रु दल के रथियों को पीड़ा देने में समर्थ थे, वे पूर्व की ओर मुँह करके चुपचाप बैठे हुए बाणों का आघात सह रहे थे और जैसे पर्वत हिल रहा हो, उसी प्रकार झूम रहे थे। उस समय उनकी यह अवस्था देखकर मुझे मूर्छा-सी आ गयी थ। जिन कुरुकुल शिरोमणि वीर ने कुरुक्षेत्र में महायुद्ध ठान कर हाथ में धनुष-बाण लिये बहुत दिनों तक परशुराम जी के साथ युद्ध किया था, जिन वीर गंगानन्दन भीष्म ने वाराणसी पुरी में काशिराज की कन्याओं के लिये युद्ध का अवसर उपस्थित होने पर एकमात्र रथ के द्वारा वहाँ एक एकत्र हुए समस्त क्षत्रिय नरेशों को ललकारा था तथा जिन्होंने दुर्जय चक्रवर्ती राजा उग्रायुध को अपने अस्त्रों के प्रताप से दग्ध कर दिया था, उन्हीं को मैंने युद्ध में मरवा डाला। जिन्होंने अपने लिये मृत्यु बनकर आये हुए पांचालराजकुमार शिखण्डी की स्वयं ही रक्षा की और उसे बाणों से धराशायी नहीं किया, उन्हीं पितामह को अर्जुन ने मार गिराया।

मुनिश्रेष्ठ! जब मैंने पितामह को खून से लथपथ होकर पृथ्वी पर पड़ा देखा, उसी समय मुझ पर अत्यन्त भयंकर शोक-ज्वर का आवेश हो गया। जिन्होंने हमें बचपन से पाल-पोसकर बड़ा किया और सब प्रकार से हमारी रक्षा की, उन्हीं को मुझ पापी, राज्य लोभी, गुरुघाती एवं मूर्खन थोड़े समय तक रहने वाले राज्य के लिये मरवा डाला। सम्पूर्ण राजाओं से पूजित, महाधनुर्धर आचार्य के पास जाकर मुझ पापी ने उनके पुत्र के सम्बन्ध में झूठी बात कही। उस समय गुरु ने मुझ से पूछा था- 'राजन्! सच बताओ, क्या मेरा पुत्र जीवित है?' उन ब्राह्मण ने सत्य का निर्णय करने के लिये ही मुझसे यह बात पूछी थी। उनकी वह बात जब याद आती है तो मेरा सारा शरीर शोकाग्नि से दग्ध होने लगता है। परंतु राज्य के लोभ में अत्यन्त फँसे हुए मुझ पापी गुरु हत्यारे ने मरे हुए हाथी की आड़ लेकर उनसे झूठ बोल दिया और उनके साथ धोखा किया। मैंने सत्य का चोला उतार फेंका और युद्ध में अश्वत्थामा नामक हाथी के मारे जाने पर गुरुदेव से कह दिया कि 'अश्रत्थामा मारा गया।’ (इससे उन्हें अपने पुत्र के मारे जाने का विश्वास हो गया)। यह अत्यन्त दुष्कर पाप कर्म करके मैं किन लोकों में जाऊँगा? युद्ध में कभी पीठ न दिखाने वाले अत्यन्त उग्र पराक्रमी अपने बड़े भाई कर्ण को भी मैंने मरवा दिया- मुझसे बढ़कर महान् पापाचारी दूसरा कौन होगा?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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