पंचसप्तत्यधिकद्विशततम (275) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
महाभारत: शान्ति पर्व: पंचसप्तत्यधिकद्विशततम श्लोक 1-16 अध्याय: का हिन्दी अनुवाद
जीवात्मा के देहाभिमान से मुक्त होने के विषय में नारद और असितदेवल का संवाद भीष्म जी कहते हैं- युधिष्ठिर! इस विषय में देवर्षि नारद तथा ब्रह्मर्षि असितदेवल के संवाद रूप प्राचीन इतिहास का विद्वान पुरुष का उदाहरण दिया करते हैं। एक समय की बात है, बुद्धिमानों में श्रेष्ठ बूढ़े असितदेवल को आसन पर बैठा हुआ जान नारद जी ने उनसे सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय विषय में प्रश्न किया। नारद जी ने कहा- ब्रह्मन! इस समस्त चराचर जगत की सृष्टि किससे हुई तथा यह प्रलय के समय किसमें लीन हो जाता है, यह आप मुझे बताइये? असितदेवल ने कहा- देवर्षे! सृष्टि के समय परमात्मा प्राणियों की वासनाओं से प्रेरित हो समय पर जिन तत्त्वों से सम्पूर्ण भूतों की सृष्टि करते हैं, उन्हें भूतचिन्तक (भौतिक विज्ञानवादी) विद्वान पंचमहाभूत कहते हैं। परमात्मा की प्ररेणा से काल इन पाँच तत्त्वों द्वारा समस्त प्राणियों की सृष्टि करता है। जो इनसे भिन्न किसी अन्य तत्त्व को प्राणियों के शरीरों का उपादान कारण बताया है, वह निस्संदेह झूठी बात कहता है। नारद! पाँच भूत और छठा काल- इन छ: तत्त्वों को तुम प्रवाह रूप से शाश्वत, अविचल और ध्रुव समझो। ये तेजोमय महत्तत्त्व की स्वाभाविक कलाएँ हैं। जल, आकाश, पृथ्वी, वायु और अग्नि- इन भूतों से भिन्न कोई तत्त्व कभी नहीं था; इसमें संशय नहीं है। किसी भी युक्ति या प्रमाण से इन छ: के अतिरिक्त और कोई तत्त्व नहीं बताया जा सकता। इसलिये जो कोई दूसरी बात कहता है, वह निस्संदेह झूठ बोलता है। तुम सभी कार्यों में अनुगत हुए इन छ: तत्त्वों को और जिसके ये कार्य हैं, उस कारण को भी जानते हों। पाँच महाभूत, काल तथा विशुद्ध भाव और अभाव अर्थात नित्य आत्मतत्त्व और परिवर्तनशील महत्तत्त्व- ये आठ तत्त्व नित्य हैं। ये ही चराचर प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय के अधिष्ठान हैं। सब प्राणी उन्हीं में लीन होते हैं और उन्हीं से उनका प्राकट्य भी होता है। जीवों का शरीर नष्ट हो जाने पर पाँच भागों में विभक्त होकर अपने-अपने कारण में विलीन हो जाता है। प्राणियों का शरीर पृथ्वी का विकार है, श्रोत्रेन्द्रिय आकाश से उत्पन्न हुई है, नेत्रेन्द्रिय सूर्य से, प्राण वायु से और रक्त जल से उत्पन्न हुए हैं। विद्वान पुरुष ऐसा मानते हैं कि नेत्र, नासिका, कर्ण, त्वचा और पाँचवी जिह्वा- ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ ही विषयों को ग्रहण करने वाली हैं। बाह्य पदार्थों को देखना, सुनना, सूँघना, छूना तथा रस लेना- ये क्रमश: नेत्र आदि पाँच इन्द्रियों के कार्य हैं। उन्हें युक्ति से तुम इन इन्द्रियों के गुण ही समझों। पाँचों इन्द्रियाँ पाँचों विषयों में पाँच प्रकार से (दर्शन आदि क्रियाओं के रूप में) विद्यमान हैं। नेत्र आदि पाँच इन्द्रियों द्वारा रूप, गन्ध, रस, स्पर्श और शब्द- ये पाँच गुण दर्शन आदि पाँच प्रकारों से उपलब्ध किये जाते हैं। रूप, गन्ध, रस, स्पर्श और शब्द -इन्द्रियों के इन पाँचों गुणों को स्वयं इन्द्रियाँ नहीं जानती हैं। उन इन्द्रियों द्वारा क्षेत्रज (जीवात्मा) ही उनका अनुभव करता है। शरीर और इन्द्रियों के संघात से चित्त श्रेष्ठ है, चित्त से मन श्रेष्ठ है, मन से बुद्धि श्रेष्ठ है और बुद्धि से भी क्षेत्रज्ञ श्रेष्ठ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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